शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

"नववर्ष की शुभकामनाएं"

मिलेगा एक नया कैनवस,
और समय का,
भर लें इसपे मनचाहे,
रंग उमंग और तरंग,
हो तूलिकाएं भरी,
जोश उत्साह और विश्वास से,
जो त्रुटियां हुईं,
पिछले पन्नों  पर समय के,
उनकी चुभन को,
बना लें अपना प्रहरी,
अपनी भावनाओं और कॄत्यों का,
त्रुटियां हों यह त्रुटि नहीं,
वही त्रुटि हो दुबारा है त्रुटि यही,
प्रभु चाह रहे कुछ कर जाएं,
और सुन्दर हम सब,
तभी दे रहे एक और अवसर।
"सभी को नववर्ष की शुभकामनाएं"

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

"नववर्ष मंगलमयी हो"

हे ईश्वर,
हम सभी ने,
पूर्ण की परिक्रमा,
सूर्य की एक और।
इस परिक्रमा मे,
कुछ छूट गए,
सदा के लिए,
कुछ रह गए,
थोड़ा पीछे,
कुछ आगे आगे,
ही रहे।
पर गोल चक्कर मे,
आगे पीछे तो सब,
होता है सापेक्ष।
बस आपकी बनी रहे,
अनुकम्पा,
सभी पर,
है यही प्रार्थना।
इस नई परिक्रमा में,
सब का हो,
उत्साह नया,
जोश नया,
एक उत्सव सा,
एक अवसर सा।
और कुछ की चाह नहीं,
पर संजोए रखना प्रभु,
जो कुछ भी है हासिल।
आ पाऊं औरों,
के काम,
कर सकूं जीवन,
सार्थक अपना,
बस इतनी सी अभिलाषा।
"नववर्ष २०११ सभी  के लिए अभूतपूर्व रूप में मंगलमयी हो"

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

अधीर करते "अधर"

              अधर तेरे ये सीप से,
        और एक एक बोल मोती से,
               तिस पर मुस्कान मखमली,
         इन्हें देखूं तो छूने की चाह,
                छूं लूं तो चूम लेने की चाह,
          चूमूं तो संजो लेने की चाह,
                 पर संजो कब पाया है कोई,
          रूई के फ़ाहों सी,
                  खुशबू, सुन्दरता और हंसी।

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

"उधार आंसुओं का"

यह माना कि प्यार,
किया था बहुत तुमने मगर,
कम हम भी ना तड़पे थे उस रोज़,
जब मांगा था तुमने हिसाब आंसुओं का।
चार-छेः आंसू बहा कर,
दर्ज कर लिया बही मे तुमने  उन्हें,
और चाहते हो अब कि,
जीवन भर डूबा रहूं,
कर्ज में उन्हीं आंसुओं के।
सच तो यह था कि,
जब जब बहे आंसू तुम्हारे,
भिंचती रही मुठ्ठियां मेरी,
और समाता रहा उनमें,
बांध मेरे आंसुओं का।
पर आज खोल बैठा हूं,
मुठ्ठियां अकेले में,
और जार जार बह रहे आंसू।
शायद इस तरह,
लौटा रहा हूं उधार,
तुम्हारे आंसुओं का ।

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

"ठंड" और "अलाव"

मैने पूछा ठंड से,
अकड़ तो बहुत है तुझमें,
दम रखती हो जकड़ने का सभी को,
पर डरती हो तुम भी अमीरों से,
रूपये-पैसे से और उनकी मदिरा से,
तभी तो उनकी रंगीनियों में,
तुम शामिल नही होती और,
कपड़े हों ना हों,
जिस्म उनके ठंडे नही होते,
और बेचारे गरीब,
जिनपे कपड़े तो बहुत हैं शायद,
फ़िर भी अकड़ से जाते हैं,
तुम्हारी जकड़न में,
लगता है मिली हुई हो,
तुम भी सिस्टम से,
या गोया कोई चाल है तुम्हारी
सरकार की तर्ज पर,
गरीबी मिटाने की,
कि गरीबी मिटाने से अच्छा है,
गरीब को ही मिटा दो,
उसने मेरी बात अनसुनी सी की,
और लगी रही जतन से,
शहीद करने में,
अलाव चौराहों के।

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

"टर्न ओवर........"

कुल गुब्बारे होंगे,
सौ, दो सौ, चार सौ।

वज़न सारी रेवड़ी का,
आठ दस किलो।

छोटी सी दुकान,
कुल पतंगे तीस चालीस।

सिर्फ़ रूई की बत्तियां,
सारी बमुश्किल आधा किलो।

बांसुरी सभी बजती हुई,
मगर कुल सौ डेढ़ सौ।

मिट्टी के खिलौने,
रंग-बिरंगे सजे ज़मीन पर,
कुल कीमत चार साढे चार सौ।

चूरन का ठेला,
बच्चों को ललचाता हुआ,
लागत जोड़ें तो,
रुपए डेढ़ पौने दो सौ।

चाकू छुरी तेज करता हुआ,
दिन भर में चालीस-पचास।

ऐसे ना जाने कितने,
बेचारे चलते फ़िरते,
दुकानदार,

जितना इनका,
खर्च रोज़ का,
जीवन जीने का,
उतनी तो कुल पूंजी है | 

कैसे ये जी लेते हैं,
ज़िन्दगी,
इस "टर्न ओवर" में।

काश! हो इनकी भी,
किस्मत कभी "ओवर टर्न" ।

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

"एक बार स्त्री-मन मिले तो"

अंतर तो है,
स्त्री और पुरुष
सोच में,
पर इतना व्यापक
अंतर क्यों ?
कारण अस्पष्ट सा !
अपना पराया,
इनका उनका,
लेना देना,
क्या खाया,
क्या पाया,
कहा क्या,
सुना क्या,
कब आये,
क्यों आये,
जायेंगे कब,
इनका मायका,
उनकी ससुराल,
ये ननद,
वो भौजाई,
अपनी बिटिया,
उनकी बहू,
मंहगी जेठानी,
सस्ती देवरानी,
कमाऊ देवर,
बोझ ससुर ।
पुरुष बेचारा
अव्वल तो समझ
से परे
समझे तो पागल ।
स्त्री ही स्त्री की,
मददगार क्यों नही,
हमसोच हमख्याल
क्यों नहीं ?
"एक बार स्त्री-मन
मिले तो जान पाऊं"
शायद ??

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

"रूह" बनाम "जिस्म"

आज मेरी रूह,
पूछ बैठी मेरे जिस्म से,
क्या हासिल होता है तुम्हें,
दूसरों की ही सोच कर,
या विचार कर उनकी खुशी,
लोगों की नोच-खरोच दिखती है,
तुम्हारे जिस्म पर,
फ़िर भी तुम रखते हो,
ख्याल उनकी ही उंगलियों का,
आगे कहा उसने,
जिस्म तू थक जाएगा,
ना उकताएंगे वे तेरी तकलीफ़ों से,
इतनी अनदेखी ना कर,
अपनी रूह की,
जिस्म मेरा बोला,
बड़ी ही सादगी से,
तुम्हें तो एक दिन अलग,
होना ही है मुझसे,
जब तक हूं मै तेरे साथ,
प्यार कर लेने दो मुझे सभी से,
बदले में क्या मिलेगा,
कभी सोचा नही,
और सच तो यह है रूह मेरी,
कि फ़ना तो जिस्म ही होता है,
तभी यादगार रूह  बनती है।

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

"एक इल्तिजा छोटी सी........."

आँखें मूंद लो अपनी,

तुम्हें निहारना चाहता हूँ,

चेहरा रख दो मेरी हथेलियों पे,

थोड़ा दुलराना चाहता हूँ,

नज़र भी कह रही मेरी,

भर नज़र देख लूं तुमको,

आसमाँ पे मै आज,

सितारे टांकना चाहता हूँ,

ना तुम कुछ कहो आज़,

बोलूँ ना कुछ मै भी आज़,

दिल से ही दिल को सुनना चाहता हूँ,

थोड़ी लाज़ तुम भूलो थोड़ी हिचक मै छोडूँ,

तुम्हारी बाहों में मै आज़ सिमटना चाहता हूँ।

रविवार, 12 दिसंबर 2010

"ईश्वर नही है"

ईश्वर नही है,
ऐसा लगता है जब,
मिलते हैं नवजात शिशु,
कूड़े के ढ़ेर में,
दिखते हैं अबोध बच्चे,
भूखे प्यासे भीख मांगते हुए,
और देखता हूं जब,
कच्चे परिवारों से,
बाप का साया उठते हुए,
खबर छपती है जब,
जवान बच्चों की मौत की,
कैसे ईश्वर दर्शक बन सकता है,
मासूम बच्चियों के बलात्कार का,
ईश्वर बिलकुल ही नही है मानो,
जब मूक पशु,पक्षी होते हैं ,
शिकार मनुष्य की हिंसा के,
प्रार्थना है उस ईश्वर से,
दे सबूत अपने होने का,
मॄत्यु हो सभी की,
पर समय से,
ना हो कोई अनाथ,
ना हो कोई बेचारगी,
प्रकॄति का कार्य,
लगे प्राकॄतिक ही,
अ-समय या कु-समय,
ना हो कोई घटना,
मंदिर/मस्जिद में फ़टे बम कभी,
तो विध्वंस हो भले ही खूब,
पर अंत ना हो एक भी जीवन का।

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

"इन्द्र धनुष"

आज देखा उसकी कोहराई आंखों में,
बनता है एक इन्द्र धनुष,
जब वह हंस देती है,
आंखों में आंसू भरे भरे,
कैसी समानता है,
आसमान का इन्द्रधनुष भी,
बनता बारिश के बाद धूप में,
और उसकी आंखों में भी,
आंसुऒं के बाद पर,
मुस्कुराहट की धूप के साथ,
पर यह दोनों ही  इन्द्रधनुष,
क्यों बिखर जाते हैं,
कुछ ही  पलों के बाद,
काश! ऐसा होता,
दोनों ही इन्द्रधनुष ना बिखरते,
समय के साथ,
और यूं ही धूप खिली रहती,
उसके होठों पे।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

"संस्कार"

वह पल याद नही,
जब तस्वीर हटी हो आंखों से,
श्रद्धा ही श्रद्धा से ओतप्रोत है मन,
इसे प्रतिबिम्बित करने का नही कोई जतन,
अपराध तो किया है चुप रहकर,
पर ना चुप रहता तो शायद,
बड़ा अपराध हो जाता,
दोनों दशा में मेरा ही कसूर,
आज जो भी है हासिल,
आपका आशीर्वाद ही है शामिल,
पर यह भी सच है,
अगर स्थिति होती विपरीत,
शायद मै यह ना होने देता,
लोग क्या कहेंगे,
कभी सोचा नही,
आप भी ऐसा ही कहेंगे,
यह भी कभी सोचा नही,
आशीर्वाद मिलता रहे,
दूर से ही सही,
भय बस इतना है,
कोई यह ना कह दे,
कंही "संस्कार" में तो कमी नही।

"संतुलन"

अबोध था मै भी कभी,
उंगलियां भी नन्ही रही होंगी जरूर,
पर धीरे धीरे वक्त के साथ,
कब मां की उंगलियां छूटी और,
मेरी नन्ही उंगलियां बड़ी होने लगीं,
याद नही,

वक्त और बीतता गया,
मां ने अपनी पसंद के ,
दो हाथ थमा दिये और,
कहा यह जीवन संगिनी है,

ये नये हाथ ज्यादा रास आये,
सो ज्यादा मजबूती से थाम लिये,
क्रमशः स्वभाविक रूप से,
चार नन्हे हाथ और जुड़ गये,

इसी आपाधापी और ,
जीवन के बहाव में,
मां को लगा शायद,
मैं उनकी उंगलियों का स्पर्श,
भूल गया हूं,

ऐसा कदापि नही हो सकता,
पर हां थोड़ा "संतुलन" बना पाने में,
जरूर विफ़ल रहा हूं,
नई और विरासत की उंगलियों में।

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

"ये कैसी तरक्की"

आज खुद पर घिन आ गई,
जब देखा उसे मेरे  फ़ेंके हुए,
दोने-पत्तल चाटते हुए,
ये कौन सा युग है,
आदमी आदमी का जूठा,
वह भी फ़ेंका हुआ,
खा कैसे सकता है,
मगर खाते देखा,
मैने आज हज़रतगंज,
लखनऊ(तहजीबों के शहर) में,
यह माना कि उन्हें हमने,
नही किया पैदा मगर,
समाज ही जिम्मेदार है,
अगर नस्ल की फ़सल है ऐसी,
अव्वल तो हो ऐसी व्यवस्था कि,
काम मिले सभी को और फ़िर,
दाम भी मिले सभी को,
"फ़िलानथ्रॉपी" पर होते तो हैं,
सेमिनार बड़े बड़े,
मगर शायद वे सिर्फ़ कम अमीरों ,
को ही  ज्यादा अमीर बनाने के लिये,
आज सोचने पर मजबूर हूं कि,
डस्ट-बिन कूड़ा डालने के लिये है
या कूड़ा बीनने के लिये,
कंही आदमी ही आदमी को,
डस्ट-बिन में तो नही डाल रहा है,
मेरी शिक्षा-दीक्षा,अनुभव,चिंतन,
आज सब धरा का धरा रह गया,
"ये कैसी तरक्की",
 सोचने को मजबूर।

रविवार, 5 दिसंबर 2010

"तुम्हारी ये ना कैसी"

तुम्हारी ये ना कैसी,
किसी की तो ज़िन्दगी,
रूठी हो जैसे,
हंसी भी हंसी,
अपनी किस्मत पर,
कि बीच रास्ते से,
लौटी वह भी अक्सर,
अब जब पुतलियां भी मजे से हैं आंसुओ मे,
कहते हो एक बार फ़िर देखो,
आंखे उड़ेल कर,
रहम करो अब अपनी,
बार बार होने वाली जीत पर,
क्योंकि बार बार होने वाले,
सिलसिले भी थकते हैं अक्सर।

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

"खुशबू" उनकी

आंखें यूं खोली आहिस्ता से उन्होंने,
जैसे डिबिया खुली हो इत्र के फ़ाहों की,
और खुशबू फ़ैल गई।
हौले से बाल यूं लहरा दिये उन्होंने  जैसे,
केसर बिखर गए हों हवा में,
और खुशबू फ़ैल गई।
इशारों में कुछ कहने की कोशिश में,
बोल तो ना निकले पर सांसे घुली हवा में,
और खुशबू फ़ैल गई।
हवा जो चली हल्की सी,
थोड़ा पल्लू बहक गया,
और खुशबू फ़ैल गई।
मैने कैद करना चाहा उन्हें,
अपनी बांहो में,
मगर वो तो खुशबू थीं,
और खुशबू फ़ैल गई।

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

"आंसू"

यूं तो जाता नही कोई,
जाता भी है पर रुलाता नही कोई,
होठों पे तेरे इतनी हंसी थी कैसे,
दूर जाने से  इतनी खुशी हो जैसे,
माना कि दरिया के दो छोर थे हम,
ना मिलें ना सही पर,
जीवन के बहाव को,
दे सकते थे गति साथ साथ,
दूर से ही सही,
पर तुमपे तो अभी "पर" हैं,
उड़ो और ऊंचा उड़ो,
मेरे "पर" तो बोझिल हैं,
मेरे ही आंसुओं से,
जो जब कभी भी निकले चुपके से,
तुम्हारे ही  लिये निकले,
पर तुम्हारे "पर" हमेशा,
सुखाते रहे मेरी नम आंखों को,
और अन्ततः हारे,मेरे ही आंसू ।

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

"पहरा पलकों का"

पुरानी यादों को टटोलने के लिये,
उस पर पड़ी नई कच्ची यादों को,
बुहार रहा था पलकों से,
पर यह क्या,
पलकों की बुहारन में,
उनकी ही पलकें झलक गई,
और फ़िर उलझ भी गईं आपस में,
फ़िर जो सिलसिला शुरु हुआ,
पलकों को समेटने और बटोरने का,
तो यादें परत दरपरत खुलती गईं,
उनकी पलकें,नज़र भरे नयन,
कपोलों को चूमती बालियां,
उलटा प्रश्न-चिन्ह सा बनाती लटें,
मुस्कुराते होठों के दोनो ओर बनते कोष्ठक,
सांसो के अनुपात में होती कम्पित धड़कन,
उंगलियों में फ़ंसी और खेलती गले की माला,
बहुत कुछ और सभी कुछ याद आता गया,
मुझे लगा कि ऐसा ना हो कि,
पलकों की बुहारन में ,
मैं उन यादों को भी बुहार दूं,
जिन्हें मैं क्या कोई भी,
जीवन भर संजो के रखना चाहेगा,
इसीलिये मैने झट से पलकें,
मूंद लीं और उन्हीं की पलकों का,
पहरा बिठा दिया।

बुधवार, 24 नवंबर 2010

एक बहुत पुरानी "वो"

"वो" सलोनी तो थी,
मगर,
यह एहसास भी था उसे कि,
"वो" सच में खूबसूरत बहुत है,
और यही एहसास उसे दिन हर दिन,
और भी जालिम किये जा रहा था,
मुझ में ना जाने क्या दिखा उसे,
एकदिन होठों से मुसकुराते हुए,
आंखों आंखों से बोल बैठी कि,
मेरा निहारना,
उसे अच्छा लगता है ।
यह शुरुआत थी,
एकबार मैं सीढियां चढ़ रहा था,
और "वो" नीचे पानी भरी बाल्टी रखे,
शायद चावल धुल रही थीं,
अचानक पानी में मैने जो,
अक्स उसका देखा तो देखता ही रह गया,
मैने शरारतन एक भारी सा तिनका जो,
बाल्टी में फ़ेंका तो पानी मॆं,
भंवर सी बन गई और उसका चेहरा,
गोल गोल सा घूमने लगा,
घूम उसका अक्स रहा था और चक्कर सा मुझे,
आ  रहा था।
याद आज  यह सब इस लिये आ गया,
क्योंकि "वो"  साधारण सी लड़की ,
पर असाधारण चेहरे वाली थी,
जिसने कभी जाना ही ना था कि,
श्रॄंगार क्या होता है,
पर उसे देखने वाला पूरी तरह,
श्रॄंगार रस में सराबोर हो जाता था,
परंतु प्रकॄति की तो विडम्बना है कि,
कभी अच्छे और बहुत अच्छे  लोगों को,
जीवन भर का अच्छा साथ नही,  
नसीब होता और "वो" भी अन्ततः बेनसीब,
हो गई परन्तु  मैं शायद आज भी कहीं,
उसे अपने जेहन में जिन्दा रखे हूं,
पर उसे क्या पता.......
                 

सोमवार, 22 नवंबर 2010

"अखबार" और राष्ट्र का चरित्र


सही और गलत,सच और झूठ,मान और अपमान का कोई पैमाना नही है। सब सापेक्ष है। परिस्थितियां ही न्याय और अन्याय तय करती हैं। मनुष्य अपने द्वारा किये गये कार्य अथवा अपनी सोच को परिस्थितिपरक कारणों से justify करने का प्रयास करता है और अपने कॄत कार्यों से ही अपना चरित्र बनाता है और शीर्ष पर विराजमान लोगों के कार्यो एवं सोच से राष्ट्र का चरित्र दर्शित होता है।
             
यदि कभी कोई व्यक्ति ना चाहते हुए अथवा तनिक लोभवश कोई गलत कार्य या भ्रष्ट आचरण कर बैठता है और चूंकि वह स्वयं में अच्छा व्यक्ति है अतः उसे रात भर नींद भी नही आती और मन कसमसाता रहता है,यहां तक कि वह रात ही रात में यह भी तय कर चुका होता है कि सुबह सबसे पहले उस गलत आचरण का निवारण करना है।
              
परंतु सबेरे जब वह अखबार में देश के सर्वोच्च पदों पर आसीन लोगों के कारनामों से रूबरू होता है तब उसे अपने द्वारा किये गये गलत काम बहुत नगण्य से और लगभग justified भी लगने लगते हैं। (यह बात घूसखोरी,गबन,अपरहण बलात्कार जैसे सभी कॄत्यों पर लागू होती है।) और यह प्रक्रिया एक vicious circle की तरह चलने लगती है।
               
भय तो इस बात का है कि ऐसे गलत कामों के justification ही धीरे धीरे नई generation को इस कदर convince कर दे रहे है कि उन्हें यह सब राजनीति में प्रवेश करने का माध्यम और अवसर सा लगने लगा है।
               
कैसी विडम्बना है कि राष्ट्र का चरित्र "अखबार" समाज की इकाई "मनुष्य" का चरित्र बिगाड़ने को अग्रसर है।


                               "शायद आवश्यकता सोचने की है अब मीडिया को ..."

शनिवार, 20 नवंबर 2010

"entropy" और "मन"

 'एनट्रॉपी' किसी 'सिस्टम' के व्यवस्थित होने की अवस्था के बारे में जानकारी देता है। कोई सिस्टम जितना सुव्यवस्थित होगा उसकी entropy उतनी ही कम होगी,पर यह भी सच है कि entropy हमेशा बढ़ती रहती है, यानी कि कितना भी प्रयास करो system  हमेशा disorderliness की ओर ही अग्रसर रहता है | एक छोटे से उदाहरण से ऐसे समझ सकते हैं कि कार आप जितना साफ़ करोगे उसके गंदे होने की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है।
           
कुछ कुछ यही स्थिति "मन" की भी रहती है। मन सदैव चंचल रहता है।विचारों का प्रवाह निरंतर बना रहता है और वे सदा मन को अस्थिर रखते हैं, यानी मन की entropy बढ़ाते रहते हैं ।मन की entropy कम करने का तरीका यही है कि जिस भी अवस्था में आप हैं,उसी में प्रसन्न रहें और मन को विचलित ना होने दें क्योंकि  आप जो कुछ भी नया करेंगे,शतप्रतिशत entropy को ही बढ़ाएंगेऔर चूंकि प्रकॄति का नियम है कि entropy या disorderliness सदैव बढ़ना ही है अतः यह बहुत कठिन कार्य है कि मन की अस्थिरता को ना बढ़ने दिया जाय ।परन्तु नियम संयम और निश्चित प्रकार की जीवन शैली से यह थोड़ा बहुत संभव है।
            
सच तो यह है कि सारी दुनिया की  entropy क्षण-प्रतिक्षण बढ़ती जा रही है और उसके maximum state को ही catastrophe का नाम दिया गया है।
             
यह पोस्ट लिखकर मैने अपने ब्लॉग की ,कम्प्यूटर की ,नेट की और आप लोगों की भी entropy ही बढ़ाई है। यही प्रकॄति है शायद।

"latent heat" और "talent"


 "लेटेन्ट हीट" यानी गुप्त उष्मा,जो निर्धारित करती है कि कोई पदार्थ अपनी अवस्था परिवर्तन मे कितना समय लेगा और कितनी उष्मा absorb अथवा release करेगा।समान तापक्रम की दो भिन्न वस्तुओं में उष्मा की मात्रा अलग अलग होती है।बिलकुल इसी से मिलता-जुलता है "टैलेन्ट"। 'talent' ही तय करता है कि कोई व्यक्ति किसी एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जानें में कितना समय और कितनी ऊर्जा लेता है। यही स्थिति अंक निर्धारण में  भी है।

यह सच है कि यदि qualifying marks -६० हैं,तब ५९ अंक पाने वाला अनुतीर्ण हो जाता है । लोग समझते हैं कि केवल ०१ अंक का ही अंतर था और वह अनुत्तीर्ण हो गया।जबकि ऐसा नही है।५९ अंक से ६० अंक जाने में 'latent heat' की तरह ही 'talent' का रोल होता है। बिलकुल वैसे ही जैसे ९९ डिग्री तापमान के पानी और १०० डिग्री तापमान की भाप में निहित ऊष्मा की मात्रा बिलकुल भिन्न होती है।
             
'talent' को amount of "enthalpy" से भी simulate कर सकते हैं। परीक्षाऒं में अंक निर्धारण में असमंजस की स्थिति से बचने के लिये ही अब percentile का concept तेजी से लागू हो रहा है।जिसमें सीधे सीधे कौन कितना talent contain कर रहा है उसकी relative स्थिति प्रदर्शित हो जाती है।
             
वैसे भी 'talent' यदि 'latent' मोड (mode) में हो तभी ज्यादा शोभित भी होता है,इसीलिये इत्तिफ़ाकन talent और latent की वर्तनी भी एकसमान ही है ,शायद ।

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

"काश मुझे भी कोई याद करता"

          पहले तो अक्सर होता था,
          वो कहते थे हिचकी आ रही थी,
          जब जब मेरा नाम लिया बन्द हो गई थी,
          अब ऐसी कोई बात नही,
          ऐसा नही कि उन्हें अब हिचकी नही आती,
          पर मेरा नाम लेने से बन्द नही होती,
          पता नही कि वे याद नही करते,
          या मैं याद नही आता,
          काश एक बार फ़िर,
          वे याद तो मुझे करते,
          फ़िर वैसे ही कहते,
          कि लग रहा था कि,
          मैं इत्तफ़ाक से मिलूंगा,
          और मैं मिल भी जाता,
          पर ऐसा क्या हुआ जो,
          याद तो दूर भूल कर भी,
          मेरी भूलों को नही भूलते,
          पर सच तो यह है कि,
          याद तो मै  भी नही करता उन्हें,
          क्योंकि मैं पहले भूल तो जाऊं उन्हे,
          तब तो याद करूं।

बुधवार, 17 नवंबर 2010

स्वयं जीवन का अंत, आखिर क्यों?

              अभी लगभग दो घंटे पहले बच्चों ने बताया कि उनके यहां (आई.आई.टी. कानपुर में) चौथे वर्ष की एक छात्रा ने आत्महत्या कर ली ।बहुत दुख हुआ और स्तब्ध भी हूं।पिछले दो वर्षों मे यह स्वर्णिम भविष्य का तीसरा अंत है।किसी भी परिवार के लिये यह बहुत ही बड़ा और असहनीय दुख है।ईश्वर उनकी सहायता करे ऐसी हमारी प्रार्थना है।
             ऐसी कौन सी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है जो बच्चे इतना कठोर कदम उठा लेते हैं।यूं ही मौत को गले लगा लेना इतना आसान भी नही होता।संभव है मेधावी बच्चे जब अपेक्षाकॄत परिणाम नही प्राप्त कर पाते एवं अन्य बच्चों की तुलना में करियर तुच्छ लगने लगता है या पूरी तरह सेमेस्टर दोहराना पड़ता है तब भी अत्यंत ग्लानि होती है और ऐसे कदम की परिणति होती है।पर कारण कुछ भी हों इस तरह की घटनाओं की जिम्मेदारी पूरी तरह से कॉलेज प्रशासन की होनी चाहिये।सुदूर जगहों से अच्छे बच्चे ही ऐसे संस्थानों में दाखिला पाते हैं और वहां आने के बाद अगर उनमे ऐसी प्रवॄति जन्म लेती है तब वहां के प्रबंधकों की ही जिम्मेदारी बनती है ।बहुत फ़ोकस्ड पढ़ाई के बाद जब बच्चे को हॉस्टल का स्व्च्छंद माहौल मिलता है तब उनमे बिगड़ने की भी बहुत गुंजाइश रहती है इसी लिये अच्छी रैंक वाले बच्चे भी कभी कभी बहुत उम्दा परिणाम नही हासिल कर पाते।मां-बाप की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे बच्चे से लगातार संपर्क मे रहे और उसे सदा यह विश्वास दिलाते रहे कि परिणाम कुछ भी हो परिवार सदा उसके साथ है।
                 ऐसी तो कोई भी समस्या अथवा परिस्थिति नही हो सकती जिसका हल ना हो और जो भी हो वह किसी की मौत से अधिक  दुखकर तो नही हो सकता।

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

ओ, बी.ए.,एम.ए. या ओबामा

        विवाह के पहले मेरी श्रीमती जी केवल बी.ए.  और आधा एम.ए.पास थीं।शर्तिया उन्हें मेरी योग्यता से कुछ बढ़त बनानी थी सो बाद में उन्होने एम.ए. भी पूरा कर लिया।फ़िर क्या था,मै केवल बी.ई. और वह बी.ए.,एम.ए. दोनों।
         मैने सोचा यार अब तो इन्हे कुछ सम्मान देना अति आवश्यक हो गया है,सो मैने सम्मानवश  उनका नाम लेना छोड़ दिया और प्रायः "ओ बीए एमए" कहने लगा।सब कुछ सामान्य सा चल रहा था,पर मैने यह महसूस किया कि इस नाम से पुकारने के बाद से वह दिन प्रतिदिन कुछ अधिक प्रभावशाली होने लगी एवं बात बात में वीटो का इस्तेमाल कर बच्चों के आगे मेरी हालत बिल्कुल एक छोटा देश जैसी (जो कतई कर्ज़ मे डूबा हो) बना दी। मेरी समझ में कुछ नही आ रहा था कि क्या कारण है,अचानक पुकारने के नाम बदलने से इनमे इतनी सत्तात्मक शक्ति  कंहा से आ गई।
             आज अचानक समझ आया कि अपने पैर पर कुल्हाड़ी तो मैने खुद ही मारी है। मै उन्हें ओ बीए एमए नही "ओबामा" (OBAMA)  कहे जा रहा था,फ़िर नाम का तो असर होना ही था।
               अब तत्काल प्रभाव से मैने उन्हें उनके ही घर के नाम से "बेबी" कहना शुरु कर दिया है जिससे जल्दी से जल्दी वह अपने स्वभाविक रूप में आ जाए।       (बेबी उर्फ़ निवेदिता उर्फ़ शिखा बुरा मत मानना please)

सोमवार, 8 नवंबर 2010

ए बी सी डी..... से आई. आई. टी. तक

             दीपावली की छुट्टियां खत्म हुंई और दोनों बेटे फ़िर रवाना हो गए, कानपुर के लिए।जब भी बेटे छुट्टियों के बाद घर आते हैं,उनकी मां को वे और बच्चे से लगने लगते हैं क्योंकि उनके साथ ना रहने पर वे सारी बचपन की यादें और शरारतें मां को और पीछे ले जाती हैं।पर मुझे तो हरबार पहले की अपेक्षा दोनो ही थोड़ा और mature से लगते हैं।
                कभी कभी एक ही flash में सारी यादें मन के कैनवस पर उभर आती हैं। बच्चों के स्कूल जाने का पहला दिन आज भी साफ़ साफ़ याद है,सारे दिन हम दोनों स्कूल के गेट के बहर ही खड़े रहे थे। स्कूल जाने के लिये रिक्शे पर बैठ कर दोनों पीछे मुड़कर यों देखते कि शायद हम लोग  झट उन्हें उतार लें ।पर फ़िर धीरे धीरे यही रूटीन बन गया।स्कूल जाना,लौटना फ़िर अपनी मां को कॉपी दिखाना कि कितने गुड, कितने स्टार ।अक्सर दोनों में होड़ कि किसके गुड की गिनती ज्यादा,किसकी ड्राइंग ज्यादा सुंदर।(बड़े होने पर बच्चे  भी  शायद मां -पापा से यही अपेक्षा करते होंगे कि वे भी अपने  व्यवहार,कार्य संस्कॄति को ऐसा रखे कि they can also be proud of their parents) ।पर ऐसा होता नही ,पता नही क्यों?दुनिया के सारे मां-बाप अपने बच्चों को अच्छी तालीम दिलाना और अच्छा इंसान बनाना चाहते है पर खुद ऐसी मिसाल नही पेश कर पाते कि बच्चे भी उन पर फ़ख्र कर सकें ।(समाज को बेहतर बनाने के लिये शायद इससे अच्छा triggering point नही हो सकता।
             समय बीतता गया,बच्चों के होमवर्क की सारी जिम्मेदारी तो उनकी मां की थी।हां कभी कभी मैं भी रुचि ले लेता था जब  excellent कार्य पर parent's signature करने होते थे।बच्चों के बढ़ने की नाप, घर मे रखे सामान अथवा ऊचाई पर टंगी चीजों को पा पाने से होती थी और हम दोनों मन मन मे ही मुदित होते रहते थे। पी. टी. एम.में जाकर बच्चों के बारे में अच्छे रिमार्क सुनकर ऐसा लगता था, जैसे हमारे ही परिणाम दिखाए जा रहे हों।यकीनन उस समय भी हम लोग अपने को दुनिया का सबसे अधिक lucky पेरेंट समझते थे।पर धीरे धीरे पढ़ाई तो मुशकिल होने वाली थी,थॊड़ी जिम्मेदारी मेरे हिस्से भी आई, मैथ्स और साइंस की।कभी कभी मै झल्लाया भी,कुछ बिजली महकमे की व्यस्त नौकरी की वजह से और ज्यादातर उस समय मेरे स्वयं के उन सवालों को ना हल कर पाने के कारण।(क्योंकि मैने तो मैथ्स मैथ्स की तरह पढ़ी थी पर अब तो मैथ्स फिलोस्फ़िकल ज्यादा और मैथ्स कम हो गई है) । पर शायद अब तक दोनों यह समझ चुके थे कि पापा को क्या और कितना आता है,बस उतना ही पूछते थे ।
                 अब बारी आनी थी बोर्ड परीक्षाओं की।ऐसे में मेरा ट्रांसफ़र लखनऊ से बाहर हो गया।पुनः मां का परचम ही लहराना जो था।परिणाम अच्छे रहे।अब चूंकि घर में विरासत इंजीनियरिंग शिक्षा की थी सो तैयारी तो फ़िर आई.आई.टी. की होनी थी।
                बच्चों को कड़ी मेहनत करते देखकर यह दुख भी होता था कि इनका बचपन तो जैसे इन्हें मिला ही नही।पर जिस व्यवस्था मे आज हम रह  रहे हैं उसमें vertical launch या catapulting इसी slot में उपलब्ध है।असल में समाज में या पूरी दुनिया में शिक्षा के तौर पर,स्टेटस के तौर पर अथवा आर्थिक तौर पर विभिन्न orbits हैं जो different एनेर्जी लेवेल्स की हैं और higher orbit में जाने के लिये आई.आई.टी. निश्चित तौर पर  एक अच्छा लांचिंग पैड है(स्वयं कुछ करना हो तो भी और दूसरे से करवाना हो तब भी) ।
               संक्षेप में  -- वर्ष ०९ और १० में क्रमशः दोनों का चयन हो गया और दोनों कानपुर चले गए। बच्चे जल्दी बड़े होते हैं तो जैसे लगने लगता है अब हम भी और बड़े होते जा रहे हैं और यही तो जीवन चक्र है।

शनिवार, 6 नवंबर 2010

नए ब्लॉगर का दर्द

                मन सदैव चंचल और गतिमान रहता है,कुछ ना कुछ सोचता रहता है, थोड़ा बीते हुए समय पर,थोड़ा आने वाले पलों के बारे में।इन्हीं विचारों को अन्य लोगों से शेयर करने से मन हल्का हो जाता है और फ़िर कुछ नया सोचने के लिये पुनः तैयार हो जाता है।कम्प्यूटर युग से पहले डायरी लिखने की परम्परा थी।लोग अपने विषय में तमाम निजी बातें भी लिख मारा करते थे,जिनसे उनके बाहरी और वास्तविक व्यक्तित्व के अंतर का पता चलता था।पर अब इसका स्थान web-log यानि blog ने ले लिया है।डायरी लेखन में यह आवश्यक नही था कि वह हमेशा सार्वजनिक ही होगी पर बलॉग तो सार्वजनिक होगा, यह तय जानकर ही लिखने वाले अपना कौशल उजागर करना चाहते हैं।बस यहीं मात खा जाती है बलॉगिंग,क्योंकि फ़िर लोग सच बयानी कम और अपने लेखन की टी.आर.पी. ज्यादा ध्यान में रखते  हैं।
                  पर एक नया बलॉगर (मेरे जैसा) बेचारा क्या करे।जब भी कुछ लिखो,लोग पढ़ते ही थोड़ा खिसिया कर सोचते हैं कि साला यह तो पढ़ा लिखा लगता है,फ़िर अंजान बनते हुये कमेंट मारेंगे "कहां से टीपा भाई"।अब कैसे समझाएं भैया कि लिखा तो हमने खुद ही है।तब वे सारा दिमाग यह सोचने में लगाते है कि कैसे भी इसका स्रोत ढ़ूंढा जाय,जहां से टीपा गया है ताकि पोल खोली जा सके।पुराने ब्लॉगर (time wise) या कहें, मंजे हुए ब्लॉगर कुछ भी लिख दें, उस पर कमेंट की झड़ी लग जाती है या लिखने वाली कन्या राशि की हो फ़िर क्या कहने साहब ,फ़िर तो मूल लेखन का अता पता नही चलेगा ।केवल कमेंट को एक साथ पढ़ कर देखिये ,कविता सी लगेगी, शर्तिया।
                   अभी कुछ दिनों पहले ही मैने जाना कि ब्लॉगर्स की भी रैंकिंग होती है टेनिस प्लेयर्स की तरह।मैने भी शीर्ष क्रम के महानुभाव से थोड़ी जान पहचान बनाई और उनके सभी ब्लॉगों की (पढ़े-अनपढ़े सब) जमकर तारीफ़ की।फ़िर कभी धीरे से उनसे निवेदन किया कि कभी थोड़ा समय निकालकर हमार ब्लॉग भी पढ़िये और कुछ सुधारात्मक टिप्पणी दीजिये,लेकिन यह क्या ,उनकी प्रतिक्रिया ऐसी थी,जैसे हमने आई.आई.टी. के मास्टर से प्राइमरी स्कूल के बच्चों की कॉपी जांचने को कह दिया हो।पुराने,जमे हुए, मंजे हुए या मजे लिये हुए ब्लॉगर्स को, नयों को प्रोत्साहित करना  चाहिये और यदि कहीं भाषा अथवा विचार असंसदीय हो रहे हों तो आपत्ति भी करनी चाहिये।
                   खैर कुछ भी हो, मैं तो जो कुछ भी मन मे आएगा इसी तरह तरह कम्प्यूटर स्क्रीन पर उड़ेलता रहूंगा,चाहे आप बड़े लोग  इसे समेटे अथवा बिखेरें।

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

"करवा चौथ" जीवन बीमा योजना

            रोज़ सबेरे उठने से पहले नींद में ही बिस्तर पर बगल में टटोल कर देखता हूं,तो श्रीमती जी गायब मिलती हैं।जाहिर है वह मुझसे पहले उठ कर दिनचर्या में लग जाती हैं और मुझे बिस्तर पर ही चाय मिल जाती है। पर आज सुबह आदतन बगल में हाथ फ़ेर कर देखा तो पाया कि   वह तो समूची की समूची बगल में बिस्तर पर ही धरी हैं।मेरा माथा ठनका कि   क्या बात है ,इस inertia का क्या कारण हैं ,सुबह सुबह ऐसी बेजान-ता क्यों। मैने sympathy और दुलार का घोल अपनी आवाज़ मे मिलाने की कोशिश करते हुए पूछ ही लिया क्या बात है,तबियत तो ठीक है।इस पर उन्होनें बड़ी गरीब सी आवाज़, पर आंखों मे चमक के साथ बताया कि   "आज मेरा करवा चौथ का उपवास है"।
            मै तुरंत full of alert मे आ गया और जैसे बचपन मे कंही भी और कभी भी ’जन मन गण’ की धुन सुनते ही माड़ लगे कपड़े की तरह कड़क हो जाता था, उसी तरह तुरंत फ़ुरती से बिस्तर छोड़ कर खड़ा हो गया और याद आ गया कि   आज तो "करवा चौथ जीवन बीमा" का प्रीमियम भरना है नही तो इस योजना मे कोई ग्रेस पीरियड भी नही होता अगर कहीं प्रीमियम भरना भूल गये तो पूरी पॉलिसी लैप्स।पिछले वर्षों तक जमा कराए गए प्रीमियम का कोई रिटर्न नही और ना ही कोई रीन्यूवल का चांस।
              अब तो सबेरे से ही उनका व्रत का प्रताप अपना असर दिखाना शुरु करने वाला था,इसका पूरा एहसास था मुझे।उनके इस व्रत का सीधा संबंध मेरी जान से था,इसका भी पल पल मुझे डेमो दिया जाने वाला था।अन्य बीमा पॉलिसीयों मे यह सुविधा होती है कि   आपने एक बार ड्यू डेट पर प्रीमियम भर दिया,फ़िर आपका काम खत्म,पर इस घरेलू योजना में प्रीमियम तो भरना ही है,सारे दिन आपको यह महसूस भी करना है और जताना भी है कि   "हां हम आप की वजह से ही जीवित हैं"। 
               मुझे समझ में नही आता कि    इस व्रत की शुरुआत पति   के दीर्घायु होने के लिए prevention के तौर पर प्रारंभ की गई थी या cure के रूप में। जो भी हो इस दिन बेचारा पति   सब दिनों की अपेक्षा maximum भयभीत, वैसे ही दिखाई पड़ता है,जैसे अयोध्या फ़ैसले के दिन शासन-प्रशासन भयभीत था,कि  कंही दंगा ना हो जाए।लेकिन यहां तो दंगा करने वाले मन ही मन आनंद मे थे कि   देखो एक ही दिन में पूरे घर को ransom पर ले रखा है।धन्य हो पत्नियों का systematic investment plan जो पूरी तरह सफ़ल रहता है वह भी exponential return के साथ।

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

"डेंगू जो हो ना सका"


 आजकल ऑफ़िस में ५-६ दिनों से सन्नाटा पसरा हुआ है। जिसे देखो सब छुट्टी पर हैं,कारण वही एक छोटा सा मच्छर, डेंगू नाम का। वैसे मच्छर का डंक इतना लंबा तो नही हो सकता  कि वह हमारे विभाग  के कर्मचारियों की मोटी खाल को भेद सके , पर फ़िर भी सबकी अर्ज़ी डेंगूफ़ाइड होने की है, तो मानना तो पड़ेगा ही,सरकारी महकमा जो ठहरा। लोग कह रहे हैं कि मौसम बदल रहा है,यह "वाइरलो" का मौसम है।चलो अब इन वाइरलों के  प्रकार भी याद करने पड़ेंगे, क्योंकि  "कोई सवाल छोटा नही होता", शायद KBC में फ़ास्टेस्ट फ़िंगर फ़र्स्ट मे यही जितवा  दे।

हालचाल लेने के लिये मैने अपने एक सहकर्मी के यहां फ़ोन किया तो उधर से जवाब मिला कि अभी ठीक नही हूं "कटलेट’ खा रहा हूं। तभी बगल से उनकी बेगम की आवाज़ धीरे से आई कि बोलो 'प्लेटलेट' कम हो गया है, उसी की दवा खा रहा हूं। फ़िर गुस्सें मे उन्ही की आवाज़ धीरे से आई कि कटलेट तो सामने से हटाओ तब तो झूठ बोल पाऊंगा। मै समझ गया यह डेंगू तो बडे काम का है ,यह तो इलू इलू करा रहा है।शहर के सारे अस्पताल,नर्सिंग होम फ़ुल हो गये हैं ( आखिर डॉक्टरों की पत्नियां भी तो लक्ष्मी जी का व्रत,उपवास रखती होंगी)। डॉक्टरों की नई गाड़िया धनतेरस पर आने के लिये बुक हो रही हैं। आपस में डॉक्टर शाम को् क्रिकेट के स्कोर की तरह पूछते हैं "कितने डेंगू- सेंचुरी हुई कि नही" उधर से जवाब आता है "जय  हो मच्छर,मरीज़ और मीडिया की, तीनों मिलकर हमारा मनी भी बढ़ा रहें है और मन भी"।
           
शाम को घर लौटा तो काम की अधिकता से (बाकी सब छुट्टी पर जो ठहरे) मै भी कुछ बुझा बुझा सा था,मेरी निजी एवं  इकलौती पत्नी ने पूछ लिया- क्या बात है, मैने कहा थोड़ा हरारत सी लग रही है शायद बुखार हो रहा है। इस पर वे बोली कि ऐसी मेरी किस्मत कहां,मेरी सभी सहेलियां सारे दिन डेंगू , ब्लड टेस्ट,वाइरल फ़ीवर की किस्मे,प्लेटलेट्स और नई नई एंटीबायोटिक्स की बात करती है और मै अनाड़ियों की तरह चुप रहती हूं।अगर कहीं KBC में जाने का चांस मिला तो मै तो हार ही जाऊंगी ना।मैने कहा,"अगर ऐसी बात है तो,आज खोल दो घर की सारी खिड़कियां,दरवाज़े। हटा दो यह मच्छरदानी,फ़ेंक दो यह ओडोमॉस,ऑलआउट और स्वागत करो "डेंगू"  महराज का।
             
पर हमारी किस्मत तो हमसे ऐसे रूठती है जैसे कलमाड़ी से शीला दीक्षित। इतना उपक्रम करने पर भी डेंगू महाराज हमारे ऊपर आसीन नही हुए और हमे हरारत से ही संतोष करना पड़ा और अब कल ऑफ़िस फ़िर  जाना पड़ेगा,ना कटलेट ही मिला ना प्लेटलेट।

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

"एक महकमा बिजली का"

                       असतो मा सदगमय॥ तमसो मा ज्योतिर्गमय॥ मॄत्योर्मामॄतमगमय॥
             अंधेरे और उजाले में बहुत व्यापक अंतर है। एक नन्ही सी प्रकाश की किरण मीलों दूर तक अंधियारा हर लेती है।तमस असत्य और मॄत अवस्था का परिचायक माना गया है,इसीलिये ईश्वर से मनुष्य प्रार्थना करता है कि उसे सदैव वह मार्ग दिखाई पड़े, जिस पर चल कर वह सच्चाई और ज्ञान  की ज्योति पा सके।मनुष्य ने विज्ञान  की दुनिया में सबसे बड़ा चमत्कार बिजली के आविष्कार के रूप मे ही किया है।शनैः शनैः बिजली हमारी मूलभूत आवश्यकताओं की सूची में पहले स्थान पर कब आ गई, पता ही नही चला।बिजली की विशेषता है कि  वह खुद तो नही दिखाई पड़ती, पर उसी की वजह से सब कुछ दिख पाना संभव हो पाता है। इसका निर्माण  एक जटिल प्रक्रिया है। चूंकि आम आदमी इसके उपयोग से इतनी सरलता से घुलमिल गया है कि उसे इसकी जटिलता एवं गंभीरता का एहसास नही हो पाता है। इसके उपयोग मे इतनी भिन्नता है कि  कहीं ये चिराग रोशन करती है तो कहीं लोहा पिघलाती भी है और कहीं  लोहा काटती  है और लोहा जोड़ती भी है और चिकित्सा के क्षेत्र मे तो इसने ना जाने कितने आयाम छू लिये हैं।
                   इतने जटिल और संवेदनशील विषय "बिजली" को बनाने और सबको मुहैया कराने का काम करने वाला विभाग निश्चित तौर पर एक महत्वपूर्ण महकमा ही होगा और उसमे काम करने वाले भी यकीनी तौर पर काबिल और संवेदनशील भी होने चाहिये। काबिलियत तो किताबी तौर पर हासिल हो जाती है पर जो आपसे अपेक्षा करता है उसके प्रति  संवेदना रखना, यह महसूस करने से ही हासिल हो सकता है।गांव में और कहीं कहीं शहर में आज भी शाम को बत्ती जलने पर लोग दोनो हाथ जोड़ कर प्रणाम करते है,किसी अमुक के आने पर यदि तुरंत बत्ती बंद हो जाय तो उसे मनहूस करार दिया जाता है।यह सारी जानी समझी बातें करने का केवल इतना सा मकसद है कि जो लोग इस महकमे मे काम करते हैं उन्हे एहसास हो कि  उनके काम से कितने विशाल समुदाय के लोग कितनी दूर तक प्रभावित होते हैं।
                     बिजली से होने वाली घातक दुर्घटनायें बहुत ही गंभीर विषय है,ऐसा लगता है कि यह महकमा बिजली का तंत्र नही बल्कि   electric crematorium चला रहा है।इस पर ध्यान देने की ही नही, अपितु सभी को संवेदनशील होने की आवश्यकता है,कोई भी दु्र्घटना ऐसी नही होती जो टाली जा सकने वाली ना रही हो,लोगों मे जानकारी का अभाव भी अक्सर इसक कारण बनता है।किसी काम को ईमानदारी से करने की वजह केवल वेतन,प्रोमशन,दबदबा अथवा सामाजिक प्रतिष्ठा ही नही होनी चाहिये,अपितु संवेदनशीलता भी एक मुख्य कारण होना चाहिये। आपके कर्तव्यबोध से अपरोक्ष रूप से तमाम उन लोगों का भला होता है जो आपसे उम्मीद रखते हैं और यह तो बिना फ़ौज़ की नौकरी मे रहते हुये यह देश सेवा भी है।
                   वर्तमान संसाधनो एवं परिस्थितियों मे ही रहते हुए हम बेहतर आउटपुट दे सकते है,जरूरत केवल इस बात को स्मरण रखने की है "तमसो मा ज्योतिर्गमय" की आशा लोग इसी महकमें को ही ध्यान मे रखकर करते हैं।और ऐसा करने पर यही महकमा बिजली का, महक उठेगा लोगों के दिलों की रोशनी से।
                  "शुभ दीपावली"

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

"मन" और "eddy currents"

           सरल भाषा में eddy current को इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं कि   जब किसी  closed conducting system को varying magenetic flux से expose कराते हैं तब उस क्लोस्ड सिसटम में विरोधी धारायें पैदा हो जाती हैं जो अपने कारक का विरोध करती हैं। किसी सिसटम से अधिकतम आउटपुट लेने के लिये इन एडी करेंट को न्यूनतम करना आवश्यक होता है।
           इसी प्रकार कोई भी  व्यक्ति  अपने में एक कम्पलीट सिस्टम है,वह जब दूसरों के सम्पर्क में आता है एवं परिवर्तनशील विचारों या different  flux of thoughts से मुखातिब होता है ,तब उसके मन में भी एडी करेंट उतपन्न हो जाती हैं जो उन बाहरी विचारों का जबरदस्त विरोध करती हैं। विग्यान की दुनिया में इस समस्या से छुटकारा पाने के लिये system को भीतर से अनेक  परतों का बना देते हैं जिससे उनमे विभिन्न परतों मे बनने वाली एडी करेंट एक दूसरे का विरोध कर परिणामी असर लगभग निष्प्राभावी कर देती हैं। इसी प्रकार मनुष्य को भी प्रयास करना चाहिये कि उसके मन में विरोधी धारायें(eddy current) कम से कम निर्मित हों,तभी वह  अधिकतम एवं अच्छा परिणाम दे सकेगा।इसके लिये मन ,चित्त को एकदम शांत एवं स्वार्थ रहित होना चाहिये, तभी उसके मन मे कोई विकार (eddy current) उत्पन्न नही होगा। उसे भी अपने मन में सभी की बातों को ध्यान से सुनना एवं परखना चाहिये फ़िर उनमे आपस में यदि  कोई विरोधाभास तथ्य होंगे तो स्वयं ही एक दूसरे को निष्प्राभ्वी कर देंगे।(lamination of thoughts as lamination of core in transformers)
            एक अन्य उदाहरण से भी इसे इस प्रकार समझ सकते हैं ,जैसे किसी कक्षा में कोई अध्यापक पढा रहा हो और पूरी कक्षा में सभी बच्चे ४ -४ के झुंड मे गोल बनाकर आपस मे बात करने लगे तो एक प्रकार से कक्षा में eddy current का निर्माण होने लगता है जो पूरी कक्षा का आउटपुट लगभग शून्य सा करदेता है।इसका समाधान करने के लिये फ़िर अध्यापक बच्चों को उनके मित्र से अलग कर बैठा देता है जिससे फ़िर eddy current बनती ही नहीं,या बनती है तो स्वयं ही दूसरे विरोध करने लगते हैं।(layered arrangement of sitting)
            किसी भी कार्य को लगन से करना,अपना दायित्व समझना,ईश्वर का ध्यान,स्मरण और सत्संग ,विवेक का उचित प्र्योग ,ये सब ही वे उपाय हैं,जिनसे हम अपने मन में बनने वाली eddy currents को न्यूनतर कर सकते है और अपना जीवन सार्थक कर सकते हैं।

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

"प्यार" का "osmosis"

          इस धरती की सारी की सारी गतिविधियों के संपन्न होने का केवल एक ही  कारण है और वह है:दो गतियों, दो स्तरो या दो स्थितियों में विभवांतर होना अथवा gradient होना,या differential होना।किसी भी सिस्टम के सारे अवयवों का प्रयास रहता है कि उनके आपस में differential of status  न्यूनतम हो या शून्य ही हो जाय।उसी की कोशिश मे static भी dynamic हो जाता है । जैसे ऊपर से नीचे वस्तुओं के गिरने का कारण ऊंचाई में अंतर होना,पानी का बहाव , हवा का बहाव,ऊष्मा का बहाव,विद्युत का बहाव अथवा सारे भौगोलिक परिवर्तन विभिन्न स्थितियों मे differential के कारण ही होते हैं।
           इसी प्रकार भावनाओं,विचारों का भी प्रवाह हो सकता है। इसी लिये हिन्दू धर्म में सत्संग को बहुत महत्व दिया गया है।बस करना केवल इतना सा है कि  एक व्यक्ति   के मन या दिल में प्यार या स्नेह,आस्था,प्रेम  इतना लबालब भरा हो कि  दूसरे व्यक्ति  के मन मे वो प्यार osmosis से प्राविहित हो जाय।
            शायद गले मिलने का चलन भी इसीलिये किया गया होगा कि  बिना कुछ बोले, सुने osmosis से ही प्रेम एक दूसरे के दिलों मे बहने लगे।इस प्रक्रिया मे उच्चरक्त चाप भी अपने आप कम रक्त चाप वाले से मिलने पर औसत हो सकता है।विज्ञानं  की जितनी भी परिभाषाएं अथवा विश्लेषण  हैं सब मनुष्य पर ही आधारित हैं।
 ओशो ने भी इसीलिये सत्संग /  संसर्ग को अत्यंत महत्व दिया था।
               कुछ लोग इसी को टच थेरेपी भी कहते हैं और जादू की झप्पी भी।

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

"लोलाराम"

        बड़ा खुश था कि   तीन दिनों की छुट्टी एकसाथ हो रही है पूरी तरह आराम होगा ।यही सोचता हुआ ऑफ़िस से घर लौट रहा था कि अचानक कार के अगले हिस्से से अजीब सी घरड़ घरड़ की आवाज़ आना शुरु हो गई।मैने कार रोकी और उसके अगले हिस्से का मुआइना करने लगा,पर पल्ले कुछ नही पड़ा।पर चूंकि हम ठहरे मेकेनेकिल इंजीनियर सो कहां मानने वाले थे,लगे रहे जूझते रहे,पर सच में कॉलेज मे पढ़ा लिखा कुछ काम ना आया।धीरे धीरे उसी आवाज़ को संगीत समझते हुए पहुचें एक नामचीन मिसत्री के पास।उसने हमारी दशा देखकर समझा आवाज़ मेरे मे से ही आ रही है,तब मैने इशारा कार के अगले हिस्से की ओर किया ।
           चहुंओर से फ़ेरे लेने के बाद उसने बेली इंस्पेक्शन किया यानी नीचे लेटकर और फ़िर देखकर बताया कि साहब इसका "लोलाराम" बदलना पड़ेगा। मै थोड़ा चौंका कि  क्या बोल रहा है फ़िर सोचा होगी कोई चीज़।मिस्त्री साहब किसी बड़े सर्जन की तरह बोले जाइए एक नया "लोलाराम" ले आइए मै बदल दूंगा। मै चल दिया "लोलाराम" की तलाश मे,मुझे क्या पता था कि वह ओ निगेटिव खून से भी जादा रेअर होगा। खैर मै जहां भी गया जिससे भी पूछा कोई ना "लोलाराम" समझ पाया ना बता पाया कि  "लोलाराम" साहब कहां मिलेंगे।            निराश होकर मैने तय किया कि अब कार के मायके यानी कि  शोरूम चला जाय जहां से मैने कार ली थी।वहां पहुंच कर मैने अपना परिचय कार मालिक और मेकेनेकिल इंजीनियर के रूप मे दिया फ़िर भी वहां कोई मुझसे इंप्रेस नही हुआ।मेरे मुंह से "लोलाराम" सुनकर उन्हे समझ मे कुछ नही आया अलबत्ता मेरी डिग्री पर शक जरूर हुआ होगा।वहां एक समझदार टूल मेकेनिक ने मुझसे कहा अच्छा आप हाथ से छूकर बताइए कि  क्या बदलने को कहा है आपके मिस्त्री ने। जब मैने उन्हे हाथ से छूकर  बताया कि  मुझे क्या चाहिये तो सबके चेहरे पर एकदम से हंसी फ़ूट पड़ी। असल मे वह था "lower arm" फ़्रंट सस्पेंशन का।                                            फ़िर क्या था मै एक हाथ मे "लोलाराम" को कॉमनवेल्थ मे मिले गोल्ड मेडल की तरह लेकर पहुंच गया अपने मिस्त्री के पास और अब मै अपने नये  लोलाराम के साथ घर लौट रहा हूं।                                                                                                                                                                          

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

रीचार्ज कूपन "समय" के

               समय को परिभाषित करना सहज नही है।स्टेफ़ेन हॉकिन्ग साहब ने तो इस पर अनेक ग्रंथ लिख डाले है,पर सरल भाषा मे दो घटनाओं के बीच के अंतराल को समय कह सकते हैं।या यूं कहा जाय कि  सारी घटनायें समय के एक बहुत बड़े कैनवस पर चित्रित होती रहती हैं।कुछेक का मानना है कि समय भी दो तरह का होता है,एक अच्छा समय,दूसरा बुरा समय।जबकि समय तो दर्पण की तरह होता है ना अच्छा,ना बुरा ,वह तो आपका ही प्रतिबिम्ब है।  पलक झपकाने से पल बीत जाता है और सांस रोक लेने से समय रुक सा जाता है।
                जीवनकाल एक निश्चित लम्बाई की  "समय"की सुरंग है।बस इसी सुरंग से गुजरते हुए मनुष्य अपने सारे कार्य सम्पादित करता रहता है और जब सुरंग खत्म समय खत्म।मगर इस सुरंग के मार्ग से गुजरते हुए  आप बीते समय की अवधि  को रीचार्ज भी कर सकते हैं ।यादें,अच्छी यादें,बचपन की यादें,मां की यादें,शरारतों की यादें,महबूब की यादों की यादें,अपनों को याद रखने की ढाढस बंधाने की यादें,नन्ही उंगलियों से तितली पकड़ कर टिफ़िन बॉक्स मे बंद कर लेने की यादें,आंख में आंसू भरे भरे हंस पड़ने की यादें और ना जाने क्या क्या ,यह सब याद आने से समय जैसे बीता हुआ सा लगता ही नही है,गोया समय को भी रीचार्ज कूपन से चार्ज कर लिया गया हो। या कह सकते है कि समय की सुरंग से गुजरते हुए अपने आस पास छोटी छोटी तमाम सुरंगे यादों की और बनती जाती हैं जिससे रास्ता तनिक और लम्बा हो जाता है।
                 हम स्नेह और दुलार का वातावरण बना कर,उनकी यादों को ही रेड कारपेट बना अपने आगे के शेष मार्ग में बिछाते हुए अपना स्वागत स्वयं क्यों ना करते चलें। फ़िर तो समय ही समय है।

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

"X" फ़ैक्टर

            एक दिन बड़ी मासूमियत से उन्होनें मुझसे कह दिया,"क्यों जी, तुम्हारे अंदर एक्स फ़ैक्टर तो है ही नही। मैं तो घबरा गया जैसे चलती स्कूटर से कोई कह दे कि   उसमें पेट्रोल तो है ही नही । मैं तो उस समय निशब्द और स्तब्ध रह गया पर थोड़ा साहस कर के उनसे पूछ ही लिया कि  मतलब क्या है? क्या वह वही पूछ रही हैं जो मैं समझ रहा हूं।मैनेे कहा यार २०--२२ साल ब्याह को हो गये,दो दो बच्चे हो गये,दोनों माशाल्लाह जवान है,हैण्डसम हैं,अच्छे प्रतिष्ठित,देश के सर्वोच्च संस्थान मे अध्धयनरत हैं,क्या यह सब बिना मेरे X फ़ैक्टर के ही हो गया।उनका कहना था कि वह सब तो ठीक है,मै मानती हूं पर आप जान लो कि आपके अंदर वह है नही।                  
                तीन चार दिन बीतने के बाद मुझे सच मे लगने लगा कि  मेरे अंदर से कुछ मिसिंग है।लगा या तो कोई आत्मा चुरा ले गया,या दिल मैं कहीं छोड़ आया,ऐसा क्या है जो वह unknown factor 'x' नही है।तमाम यार दोस्तों से पूछा कि भाई बताओ यह क्या बला है ।उन सब के अनुसार तो मेरे अंदर x क्या y,z सब कुछ है ।तमाम शोध के बाद परिणाम निकला कि   सामान्यतः अन्य लोगो से अलग थलग दिखने के लिये आपके अन्दर कुछ छिपी या unknown प्रतिभा या गुण होना चाहिये उसे ही x फ़ैक्टर कहते हैं।प्रायः ये इंटरव्यू की चीज़ होती है।मैने सोचा मै तो शेष लोगों से बहुत ही भिन्न हूं,फ़िर तो मेरे अंदर झउआ  भर एक्स फ़ैक्टर होना चाहिये।
                   जब मेरी झुंझलाहट बहुत बढ़ गई तब वे बोली यह तो देखने वाले पर निर्भर करता है कि वह क्या देखना चाहता है और अब आप मान भी लो आपके अंदर x factor नही है। थकहार कर  मैने मान ही लिया कि मेरे अंदर x फ़ैक्टर नही है और अब मैने तय कर लिया है कि जहां कही x factor मिलेगा मै उसे घोल कर पी जाऊंगा,चाहे उस के लिये मुझे EX क्यों ना होना पड़े ।

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

गूगल चाचा से एक भेंटवार्ता

         आज बस यूं ही मन के विमान पर सवार हो कर अंतरिक्ष की यात्रा कर रहा था,तभी रास्ते में एक अजीब से कद काठी के आदमी से मुलाकात हो गई, जो बहुत ठिगना पर बहुत बड़े सिर वाला था।मैनें पूछा कौन हो भाई,"वह बोला,लो कर लो बात ,मुझे नही जानते,मै हूं तुम्हारा गूगल चाचा।पिछले जन्म में मेरा नाम लाल बुझक्कड़ था।मैने कहा अच्छा बताओ कैसे हो चाचा। बस इतना मेरा कहना था कि  लगे चाचा बुक्का फ़ाड़ कर रोने,मैनें उन्हें धीरज बंधाते हुए पूछा क्या बात है चाचा?गूगल चाचा बोले,”क्या बताऊं ,शुरू शुरू मे तो मुझे बच्चों को उनके सवाल के जवाब देनें मे बहुत आनंद आता था, पर अब क्या बच्चे, क्या बड़े, सब ऐसी बातें लिखकर पूछ डालते हैं कि  मेरे पेट में गुड़गुड़ होने लगती है।
           आगे उन्होंने बताया कि  लोग अपने दिमाग का सारा कचरा मेरे पेट मे डाल देते हैं,ना किसी को कोई शर्म है, ना कोई लिहाज़ कि  चाचा से कैसे कैसे सवाल वे पूछ रहे हैं।’साबूदाना’के बनने कि विधि  से लेकर’बच्चा ना पैदा होने पाए’ तक की तरकीब मुझसे पूछ डालते हैं ।अभी कल ही एक साहब मुझसे वियग्रा का कोई नया उपयोग पूछ रहे थे, मैने भी झल्ला कर बता दिया,  तनिक सा लेकर चाय मे डाल देना बिसकुट गलेगा नही।कैसे कैसे चित्र मेरा पेट टटोल कर देखते हैं कि मै अंदर ही अंदर शर्म के मारे कसमसाता रहता हूं पर क्या करूं,यही मेरी रोज़ी रोटी है पेट का सवाल है ,बेटा ।मैने कहा चाचा पर आप तो बहुत पुण्य का काम भी कर रहे हैं,कितनो को बीमारियों की लेटेस्ट दवाओं के बारे मे जानकारी देकर,पढ़ने वाले बच्चों को उन्हे नई नई सूचनाएं एवं तकनीकी जानकारी देकर उनका काम आसान कर रहे है।रही बात लोगों के दिमाग के कचरे की, उसे हम नादानो की नादानी समझ कर माफ़ कर दीजियेगा।इस पर चाचा मूछों ही मूछों में मुसकुराते हुए आगे निकल गए धरती की पोस्टमैनी करने गूगल अर्थ का झोला लेकर।

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

चाहत कैसी कैसी

         चाहा था छू लूं तुम्हें,
इंकार किया था तुमने,
         रोम रोम से वाकिफ़ हूं अब,
मगर वो बात नही ।
                   ।
                   ।
                   ।
           कहीं वो आकर मिटा ना दें ,
इंतज़ार का लुत्फ़,
          कहीं कबूल ना हो जाए,
इलतिजा मेरी।

ये एम एस टी वाले

"सखी सैंयां तो बहुतै जवान हैं,
ट्रेनिया डायन खाय जात है।
               ।
               ।
ट्रेनिया होए गई मोर सौतिया,
पिया का लाद लई गई ना।

"सरकार"

तुम जियो मरो,सड़ो गलो,
हमें क्या,हम तो सरकार हैं,
तुम बहो बाढ़ में दबो मलबे में,
हमे क्या,हम तो सरकार है,
कॉमनवेल्थ में तुम्हे हो शरम,
हमे क्या,हम तो सरकार है,
डेमोक्रेसी चुनी तुमने,
हमे क्या,हम तो सरकार है ॥

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

"ईद मुबारक"

चांद तो रोज़ निकलता है,

हर दिन ईद क्यों न हो,

गले मिले सब रोज़,

हर दिन ईद क्यों न हो,

पाकीज़गी बनी रहे हर रोज़,

हर दिन ईद क्यों न हो,

अल्लाह ईदी दे हर रोज़,

हर दिन ईद क्यों न हो,

मन्नतों का चांद आए,

 झोली में हर रोज़,

हर दिन ईद क्यों न हो॥


बुधवार, 8 सितंबर 2010

सालगिरह एक ब्याह की

ब्याह के पहले,
तुम एक अपरिचित,
वर्षों ब्याह के बाद,
तुम चिर अपरिचित,
कारण-वही चिर परिचित
चाहत तुम्हारी नई सांसों की,
ज़िद मेरी,ज़द मे रहने की
विरासत की सांसो की।

मन

मन आज क्षितिज सा हुआ जान पड़ता है,
दूर से मानो सब समाए मुझमें,
पास आने पर कोई न अपना सा ।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

" शब्दों " की व्यथा


अक्षरों का समूह ’शब्द’ और शब्दों का विन्यास 'भावनायें' ,पर कभी शब्दों की भावनाओं को समझने का प्रयास नही किया गया। ’शब्द’ भी प्रयुक्त होने से पहले सच्चे  पात्र की ही तलाश मे रहते हैं,पर उन्हें  यह स्वतंत्रता  कहाँ? झूठे आदमी के मुंह से ’सच’ शब्द निकलने में लज्जित एवं अपमानित महसूस करता है ।

सच्चाई,ईमानदारी,निष्ठा,देशप्रेम,मानवता, ये सारे शब्द सदैव भयभीत रहतें हैं कि, जब भी इनका प्रयोग होगा ,कुपात्र से ही होगा और उन्हे बलात अपनी भावनाओं के विपरीत कसमसाते हुये अपने अल्प कालिक  जीवन से समझौता करते हुए मरने के लिये निकलना होगा,क्योंकि जब शब्द सुपात्र से निकलते हैं,तभी वे दीर्घायु होते हैं अन्यथा पैदा होते ही मर जाते हैं।                                                                                                                                

कहते हैं बच्चे बिल्कुल अबोध और सच्चे होते है,इसीलिये सारे ’शब्द’ भी बच्चों के मुख से निकलने के लिये ही जैसे होड़  मे रहते है और इसी होड़  मे बच्चों की तोतली भाषा का आनन्द ’शब्द’ भी लेते हैं। ’मां’ शब्द तो जैसे बेचैन रहता है बच्चों के मुहं मे ही रहने के लिये। इसीलिये सबसे अधिक दीर्घायु शब्द है ’माँ ’। अगर  शब्दों को अभिव्यक्ति  की स्वतंत्रता  मिल जाये तब शायद सारे नेता,समाज के ठेकेदार गूंगे से ही हो जाएंगे  और देश पर बच्चों की ही तोतली भाषा का राज होगा,और निश्चित ही वह एक सुखद अनुभूति  होगी।

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

" एक सुनहरा धागा.........."


 आज रक्षा-बंधन का पर्व है। बचपन से सुनते देखते आये हैं कि इस दिन बहने बडे प्यार से अपने भाईयों की कलाई पर रंग बिरंगे धागे बांधती है। दरअसल यह बंधन होता है ,स्नेह का,विश्वास का,अधिकार का।  बांधा उसी को जा सकता है, जिस पर अधिकार हो या अधिकार जताना हो। लड़कियां विवाह के बाद अपनी ससुराल चली जाती हैं,मायके मे मां-बाप के बाद भी रिश्ता बना रहे शायद इसी लिये यह परंपरा चलन मे आ गई | ऐसा  मानना कि बहन द्वारा भाई से रक्षा की अपेक्षा मे यह बंधन मनाया जाता है,शायद इसमे भावनाएँ अधिक है,सत्यता कम।

सोमवार, 23 अगस्त 2010

"अपनापन"

                
                गांव लौटे शहर से तो सादगी अच्छी लगी,


                हमको मिट्टी के दिये की रोशनी अच्छी लगी,
                                   
                बासी रोटी सेंक कर जो नाश्ते मे मां ने दी,


                हर अमीरी से हमे वह मुफलिसी अच्छी लगी, 
                                 
                चांद तारों मे कहां ऐसी चमक,


                हमको अपने घर बच्चों की हंसी अच्छी लगी।

बुधवार, 18 अगस्त 2010

"विश्वास"

       
           आज अचानक बचपन मे मां से सुनी एवं आजमाई हुई निम्न लोक कहावत याद आ गई । जिसके अनुसार वह हर दिन अलग अलग , घर से निकलने से पहले कुछ खिला कर भेजती थी और कहती थी सब काम बन जायगा,सब आसान है,खास कर परीक्षा देने जाते समय:--                  
           
          " रवि   को पान,
           सोम को दर्पण (देखना),
           मंगल कीजे गुड अर्पण,
           बुध को धनिया,
           बीफ़े (बृहस्पतिवार) राई,
           सूक  (शुक्रवार) कहे मोहे दही सोहाई,
           सनीचर कहे  जो अदरक पाऊं,
           तीनो लोक जीत घर आऊं। "
         
            सचमुच इससे आत्मविश्वास बहुत बढ जाता था और  सब  काम आसानी से हो भी  जाते थे। पता नही यह मां का विश्वास कहावत पर था या मेरा विश्वास मां पर ।

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

बया का घोसला

                   कुदरत ने सभी जीव, जन्तु, पशु,पक्षिऒं मे बया को सर्वश्रेषठ आर्किटॆक्ट बनाया है।बया अपना घर बनाने के लिये प्लाट का चयन ,अनुमानित आकार प्रकार का आकलन बखूबी कर लेती है।घोसला बनने के बाद उसके इर्द गिर्द कितनी जगह एवं हवा मिलेगी ,इसका निश्चित प्राविधान होता है।कहतें है नर बया ही घोंसला बनाता है फिर मादा बया तमाम बने हुए घोसलों  मे से एक को पसंद करती है और उस घोसले के आर्किटॆक्ट से जोडा बनाती है।यानी यहां भी नर  अपनी कला कॊशल से समाज मे सम्मान पाता  हॆ।                                                                                                                                                                 इसी से मिलती जुलती कहानी है "बयान का घोसला" की ,यानी फ़ेसबुक की । तिनका तिनका आप दोस्तों को जोड्तें हैं, वन फ़ाइन मार्निंग देखते हैं पूरा कुनबा बन गया दोस्तों का,वह भी तरह तरह के बयानों (status) से लबरेज,जिसमे फ़लसफ़ा है,देश प्रेम है,करुणा है,वियोग है,रोमांच भी है और रोमांस भी।विशाल घोसला बनने के दॊरान ही नये दोस्तों को आमंत्रित भी करते रहतें हैं ,लुभाने के लिये mutual freinds का बॊनस रहता हैं,कुछ सुंदर चेहरे उसमें हो तो क्या कहने,फ़िर तो वह घोसला सबसे बडा और शानदार elite class का हो गया  समझो,यहां तो आप कोटि  कोटि  प्रयास के बाद भी ignore होते रहेंगे। अभी अभी मॆने भी बिना चेहरे वाली request को ignore कर दिया
                        कभी कभी सोचता हूं अगर इस बयान के घोसले का चित्र बनाया जाये तो शायद कुछ कुछ organic chemistry मे पाये जाने वाले complex hydrocarbon के शॄंखला की शक्ल  का बनेगा जो सभी तिनकों के पासवर्ड पर टिका दिखेगा।

रविवार, 15 अगस्त 2010

एक प्रयास में "मैं" भी

         आज 15 अगस्त 2010 के दिन मुझे भी ब्लाग लिख्ने का शौक चर्रा गया,सो कोशिश आज कर रहा हूं,यह हिन्दी मे लिखने मे मात्रा उलट जाती है ,लगता है जैसे किसी ने उल्टी  मांग निकाल ली हो ,फिर उसे पहचानने मे वक्त लगता है। लोग इसे पढेंगे , हसेंगे, कमेन्ट मारेंगे, मेरा तो सोच सोच कर ही दिल 'ब्लाग ब्लाग' हो रहा है।ब्लाग लिखने मे यह फ़ायदा है कि  इसमें printers devil का भय नही है ,जो लिखो वही छपेगा। बस ! य़ह test proof  है,शुभ रात्रि ।