शुक्रवार, 27 मई 2011

"चाय के बहाने"

                    "उनको यह शिकायत है हम कुछ नहीं कहते ,
                    अपनी तो यह आदत है हम कुछ नहीं कहते |"
               
                 चाय कैसी लगी ,पूछा उन्होंने | अरे चाय ख़त्म भी हो गई ,मैंने खाली कप को देखते हुए कहा | तुम्हारी यही आदत खराब है ,कितने भी मन से कुछ भी बना लो ,मगर तारीफ़ के दो बोल कभी नहीं बोलते ,कप उठाते हुए बोली वें | देखो अगर चाय तुमने दिल से बनाई है, और बनाते समय तुम्हारे ख्यालों में मै था,फिर तो चाय को उम्दा होना ही था | और चाय कैसी है ,यह सवाल तो तब उठता है जब चाय अकेले में पी जाय | जब तुम सामने हो तो चाय में तुम्हारा ही अक्स नज़र आता है , और तब चाय भी तुम्ही में घुली घुली सी लगती है |   
                 इतना ही काफी था ,उनके लिए एक और अच्छे दिन की शुरुआत करने को |
                 कहते हैं , सवेरे सवेरे की पहली चाय आपके पूरे दिन के मूड को तय करती है ,इसलिए दिन की पहली चाय ख़ास अपनों के साथ होनी चाहिए |

सोमवार, 23 मई 2011

"लॉयल्टी टेस्ट" से "नार्को टेस्ट" तक

            तनिक मुझे कनखियों से देखते हुए निवेदिता (मेरी पत्नी) ने मुझसे अचानक पूछ लिया कि अगर आपका  "लॉयल्टी टेस्ट" करवाया जाय तो क्या परिणाम निकलेगा | मुझे अ-कारण घबराहट हुई ,फिर भी संयत होते हुए मैंने कहा फेल हो जाऊँगा और क्या | ये सुनकर वो थोड़ा आक्रोश मिश्रित प्रसन्नता से लबरेज़  हुई कि  उनका शक सही दिशा में है |
            मैंने पूछा ,"अचानक तुम्हे यह विचार कहाँ से आ गया, UTV-Bindass देखना बंद कर दो अब ,वही सब देख कर तुम्हे नेक ख़याल आ रहे हैं |" उन्होंने कहा,मै टीवी ही नहीं देखती आप किस चैनल की बात कर रहे हैं |मैंने कहा, फिर यह शक-शुबह क्यों | प्रश्न वाचक आँखों से कहा उन्होंने, कि आजकल आप उर्दू के लफ्ज़ कुछ ज्यादा ही इस्तेमाल कर रहे हैं ,और सुना हैं कि उर्दू इश्किया भाषा है | आखिर ऐसा क्या हुआ कि आप अचानक अलिफ़, बे, पे के चक्कर में पड़ गए | मुझे बरबस हंसी आ गई ,और मन ही मन थोड़ी राहत भी | मैंने कहा कुछ नहीं यार , ये समझ लो कि बस "बात करने का हसीं तौर तरीका सीखा,हमने उर्दू के बहाने से सलीका सीखा" | मेरी पूरी बात सुने बगैर निवेदिता बिस्तर पर जा गिरी धम्म से और सुकून की नींद सो गईं |
            सोते सोते नींद में ही वो कुछ बडबडा रही थीं ,मैंने अपना  कान अलर्ट मोड पे डाला और ध्यान से सुना कि वे बोल रही थी ,ये (मैं ) बहुत ढीठ है ,इनसे कुछ उगलवाना आसान नहीं है ,इनका तो "नारको टेस्ट" करवाना पडेगा | मैंने भी नार्को टेस्ट पास करने के लिए गूगल में ढूंढ़ ढूंढ़ कर तमाम माडल पेपर मश्क कर लिए हैं, और पूरी उम्मीद है कि मशीन को छका ले जाऊँगा | यही सोचता हुआ मै भी सुकून से सो गया |
             आज शाम को आफिस से लौटा तो देखा कि उनकी मेज़ पर कुछ फॉर्म पड़े है जिन्हें वो बहुत तल्लीनता से भर रही हैं | मै पूछा ,क्या कर रही हो बेगम ,इतना मन लगा कर | वो विजयी मुस्कान चेहरे पे चिपकाए हुए बोली ,आपके लिए फॉर्म मंगाया है "सच का सामना -द्वितीय" के लिए |
             मैने  अपना सर पकड़ लिया और अब उर्दू से तौबा कर ली है |


(यह पूरी तरह से केवल व्यंग निमित्त लिखा गया है ,किसी भाषा,व्यक्ति अथवा समुदाय को आहत करने का उद्देश्य नहीं है ) 

शुक्रवार, 20 मई 2011

"ज़ख्म" या "स्मृति चिन्ह"

क्यूँ,
तुमने,
चुराके अश्क,
मोहब्बत की आँखों से,
सजा दिए,
सितारे फलक पे |

गर इतना ही चाहा था,
दिल से मुझे,
रहते  खामोश ही,
तुम,
मगर, 
कभी ठहरी साँसों को,
जुम्बिश तो दी होती | 

प्यार का समंदर,
क्यूँ दिखाया मुझे,
और, 
छोड़ दिए  निशान,
इतने गहरे,
सीने पे |

खुदा जाने,
अब, 
मुलाकात हो,
ना हो |

ज़ख्म तो भर जायेंगे,
निशानों के सीने पे, 
पर अक्स उभरेगा,
उन ज़ख्मों का,
तुम्हारे भी,
सीने पे |

खुदा,
सलामत रखे,
तुम्हे,
और,
तुम्हारी आशनाई को |

मै,
बस,
कुरेदता रहूँगा,
उन ज़ख्मों को,
(समझ 'स्मृति चिन्ह') 
तुम्हारे ही,
तबस्सुम से | 

मंगलवार, 17 मई 2011

"अनुत्तरित"

"उठो,

चादर ठीक कर दूँ,

सलवटें  पड़ गई हैं |"

मैंने कहा था |

"और मन पे जो,

छोड़ जा रहे हो,
  
सलवटें,

उनका क्या" 

उसने पूछा था |

बिना उत्तर,

दिए,

तेज़ क़दमों,

से,

निकल,

आया था,

बाहर, 

मै |

                (आज भी वो सवाल अनुत्तरित है ) 

  
  

बुधवार, 11 मई 2011

"खूंटी पे टंगे जिस्म"

रूह मेरी,
बिस्तर पर,
पड़े पड़े, 
ताक रही है,
सामने लगी, 
खूंटियां,
दीवार पे |

जिस पर, 
लटक रहे हैं, 
कतार से, 
तमाम सारे,
जिस्म |

जिन्हें मै ही ओढ़ता हूँ,
मौका बे-मौका, 
बदल बदल के |  

एकदम बाईं ओर टंगा, 
सबसे नया है, 
इसमें भरा है, 
बहुत सारा नकली रुआब,
और, 
अकड़न मुर्दा जैसी, 
ये काम आता है, 
चंद बड़े और, 
ज्यादा दौलत वालों से,
मिलने जुलने में | 

इसके बगल टंगे जिस्म में, 
भरा है खोखला, 
अफसराना, 
जिसके बगैर लोग कहते हैं, 
इसमें o.l.q.. नहीं है,
इसे पहनता हूँ, 
दफ्तर में मजबूरन |  

एक जिस्म के कालर में, 
बकरम नहीं है,
ओढ़ता हूँ इसे, 
अपने से ओहदे में बड़ों के आगे |

जिस्म एक ऐसा है, 
जिसमे हवा ही हवा भरी है, 
ना मुड सकता है,
ना शिकन पड़ सकती है,
काम आता है, 
अपनी  गली महल्ले,
और रिश्तेदारों में |

अब तो बच्चे भी, 
पड़ जाते हैं,
उलझन में अक्सर, 
क़ि ये वाकई वालिद  है,
या, 
सिर्फ ओढ़ रखा है जिस्म, 
वालिदाना |

बीवी भी मेरी, 
उकता जाती हैं, 
अक्सर, 
देखके, 
मुझे  बदलते,
लिबास जिस्मानी |

हकीकतन,
उसके करीब कौन  है, 
बस ढूँढती रहती है,
उसी जिस्म को |

कोशिश,
भी करती  है,
बिठाने की तालमेल,
बदलते जिस्मानी लिबास से,
नाकाम ही रहती है,
और,
उफ़ भी नहीं करती |   
(इतनी तकलीफ तो द्रौपदी को भी नहीं हुई होगी

रूह मेरी, 
थक सी जाती है, 
निचुड़ जाती है, 
बदले बदलते, 
जिस्म इतने सारे |

ना बदले, 
तो जिन्दा रहना दूभर, 

क्योंकि मौके,
और मिज़ाज के, 
हिसाब से, 
जिस्मों के भी,
ड्रेस कोड,
होते हैं शायद |



"वैसे पता चला  है आजकल डिजाइनर जिस्म भी फैशन में आ गए हैं"   
   
    

गुरुवार, 5 मई 2011

"तुम पे, क्या लिखूं"

सुना है, 
तुम लिखते भी हो, 
उसने पूछा था | 
हूँ ! 
मैंने कहा था | 
कुछ मेरे पे लिखो, 
प्यार भरी आँखों, 
से गुदगुदाया, 
तनिक मुझे, 
और उंगलियाँ, 
पकड़ ली थी मेरी | 
गोया, 
उनमें से हर्फ़  निकलेंगे अभी, 
और वो उन्हें, 
अपने इर्द गिर्द, 
समेट  लेगी,
और बना  लेगी,
लिबास,
एक नज़्म  का |
मैंने कहा था, 
हाँ,पर उसके लिए,
तुम्हे जानना होगा, मुझे |
पर, 
मै जब भी,
कोशिश करता हूँ,
जानने  की  तुमको,
तुम, 
मेरे  ख्यालों  की  ही, 
हकीकत  सी  लगती हो |
तुम पे कैसे लिखूं, 
तुम तो 'स्टेंसिल'  हो,
मेरी नज्मों  की,
मेरी ग़ज़लों की |
समय तुमसे ही,
छन कर,
आता है, 
और, 
छपता सा  जाता है, 
सफों पे, 
ज़िन्दगी के मेरी |
तुम तो खुद में, 
एक लफ्ज़  हो,
इबारत हो, 
तबस्सुम  हो, 
एक मिज़ाज हो |
जब भी लौटा  हूँ, 
पास से तेरे, 
कभी नज़्म,
तो, 
कभी ग़ज़ल,
ही,  
छपी मिली है, 
दिल पे मेरे |  
तुम पे, 
क्या लिखूं, 
और कैसे लिखूं ?