शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

" १९ जुलाई से २८ सितम्बर तक ......"


जुलाई में जन्म हुआ श्रीमती जी का १९ को , अगस्त में मेरा, पहली को , अगस्त में ही बड़े बेटे अनिमेष का २५ को और अंत में सितम्बर में छोटे बेटे अभिषेक का २८ को | माह तो क्रम वार हैं ही , तिथियाँ भी बड़े से छोटे के क्रम में हैं | ( ०१/१९/२५/२८ ) 

वर्ष में १२ माह होते हैं परन्तु हमारे यहाँ तीन माहों में ही हम सब के जन्म दिन हो जाते हैं | पार्टियां करो तो लोग कहते हैं , यार इनके यहाँ तो रोज ही जन्म दिन होता है | जब बच्चे छोटे थे तब दोनों का जन्म दिन हमलोग अक्सर किसी एक की ही तिथि पर मना लिया करते थे | पर उस दशा में दोनों में गिफ्ट के लिए बहुत लड़ाई होती थी |

आज अभिषेक का जन्म दिन है | बचपन से बहुत शरारती , बहुत बात करने वाला , अत्यंत जिज्ञासु , मेरी नाक में दम करने वाला , अनिमेष से खूब लड़ाई करने वाला ( एक बार एक घूंसे में अनिमेष की नाक से खून निकाल दिया था ) और अपनी मम्मी का चहेता नंबर वन | मेरे आफिस की सारी बातें सुन सुन कर मुझ से ही प्रश्न करता रहता था कि , पापा आप करते क्या हो , रोज़ रोज़ ट्रांसफार्मर फुंकते रहते है | किसी भी सिस्टम से बेहतर आउट पुट कैसे लिया जा सकता है , इस पर मनन करने का तो जैसे शौक है उसे | किताबों के प्रति बहुत शुरू से लगभग कक्षा १ से ही लगाव हो गया था और आज तो अच्छी खासी एक लाइब्रेरी बन चुकी है हमारे घर में |

पढ़ाई में सदा मेधावी , सारे ओलंपियाड में मेडल और साइटेशन मिला | 'किशोर वैज्ञानिक प्रोत्साहन योजना' में अंत तक सफल हुआ | परन्तु आई आई टी में चयन होने के कारण स्कालरशिप नहीं मिली , क्योंकि वह स्कालरशिप प्योर साइंसेस के लिए थी | अभी इरादा एम एस करने का बना रहा है , देखें आगे क्या होता है |

कभी कभी लगता है जैसे ईश्वर से मेरी बहुत अच्छी दोस्ती सी है , जो उनसे कहता हूँ बस हो जाता है  |  पुनः प्रार्थना है उस दोस्त सरीखे ईश्वर से, बस मेरे दोनों बेटों पर अपना स्नेह और आशीर्वाद बनाए रखें | हम पति पत्नी तो बस उनकी ख़ुशी में ही धन्य रहेंगे सदा | 

अभिषेक , बहुत बहुत प्यार पापा का और तुम्हारी मम्मी का | एक शिकायत तुम्हारी मम्मी की,मुझे करनी है , तुम दोनों के जाने के बाद से मुझे यार घर में वह सीरियसली लेती ही नहीं | हाँ ! एक बात और तुम्हारी जिद के कारण मम्मी ने जिम जाना और मैंने घर पर ही रेगुलरली ट्रेड मिल शुरू कर दिया है ।

अपने दोस्तों को पार्टी -शार्टी दे देना । बस ।

-पप्पा
                                                                      " तुम दोनों में ही तो प्राण बसते हैं हम दोनों के "

सोमवार, 24 सितंबर 2012

" दर्द का महाराजा .......दाँत का दर्द ...."


'वेदना' शब्द की उत्पत्ति में 'वेद' शब्द का क्या महत्त्व है, यह तो नहीं पता ,परन्तु इतना तो अवश्य तय है कि जितना ज्ञान वेदना की स्थिति में प्राप्त होता है उतना ज्ञान वेद से भी नहीं मिल सकता | शायद इसीलिए उस स्थिति को वेद-ना कहा गया है | वेदना में भावनाओं का भी समावेश झलकता है | उसके इतर 'दर्द' शब्द का प्रयोग शारीरिक पीड़ा के लिए अधिक किया जाता है |

दर्द जहां भी होता है और जब होता है तभी उस दर्द के होने वाले हिस्से की उपयोगिता समझ में आती है | यह रिश्तों के दर्द पर भी लागू होता है | ईश्वर ने दर्द को शायद इसलिए बनाया कि दर्द होने पर हम उसके प्रति सजग हो जाए और समय रहते उपचार कर उस हिस्से , अंग या सम्बन्ध को दुरुस्त कर लें |

दर्द भी अनेक प्रकार के होते हैं | पर सब दर्दों का राजा होता है 'दाँत का दर्द' | यह ऐसा दर्द है जो शुरुआत में बहुत मीठा लगता है | कुछ लोग इसी मिठास को टीसना भी कहते हैं | फिर शुरू होने के बाद लुका छुपी खेलना शुरू कर देता है | कभी लगेगा इधर हो रहा है , कभी लगेगा उधर चला गया | कभी गुस्से में बेचारे मसूढ़े को फुला देगा | कभी कान के नीचे तक दर्द की लकीर सी बना देता है | मजे की बात है , यही दर्द एकमात्र ऐसा दर्द है जिसका लोकस ड्रा किया जा सकता है | इसी दर्द से निजात पाने के लिए बड़े बड़े राजा महाराजा अपना राज पाट भी लुटाने को तैयार हो जाते थे |

ईश्वर ने दाँत के दर्द को इतना महत्व इसलिए दिया होगा जिससे हम लोग इसका प्रयोग अत्यंत सावधानी के साथ करें | यह सोच कर लापरवाही न करें कि अरे यह तो ३२ दाँत है ,एकाध टूट भी गए तो क्या | जीवन जीने के लिए भोजन प्रमुख आवश्यकता है और भोजन के लिए मुख में दाँत सर्वाधिक महत्वपूर्ण | इसीलिए सर्वाधिक दर्द का समावेश भी दांतों के साथ ही किया गया |

यह तो सिद्ध सी बात है , जिस दर्द में सबसे ज्यादा दुःख होता है , वही बात हमारे जीवन के लिए सर्वाधिक महत्व वाली होती है | आज मुझे कई दिनों से दाँत में दर्द हो रहा था पर यह तय कर पाना मुश्किल था कि, हो कहाँ रहा है | बहुत कोशिश की ,शीशे के सामने मुंह फाड़ फाड़ कर देखने की , पर समझ न आया कि कलप्रिट दाँत कौन सा है | आखिर आज आफिस से लौटते समय अपने एक मित्र डाक्टर के यहाँ गया | मुझे देखते ही वह बहुत खुश हुआ क्योंकि मै अपने दांतों की सेहत को लेकर काफी अभिमान किया करता था | खैर , मेरे दर्द को देख उसने थोड़ा अपनी हंसी रोकी और अपनी 'आधी कुर्सी आधा बेड' टाइप बिस्तर पर मुझे लिटा दिया | मुआयना करने के बाद यह निष्कर्ष निकला कि थर्ड मोलर नामक प्राणी अपनी औकात से ज्यादा बाएं दायें खिसक रहा है | अतः उसे मुख-संसद से बाहर निकाल दिया जाय | 

जितनी आसानी से मेरे मित्र चिकित्सक ने यह बात कह दी , मुझे अफ़सोस हुआ | जिस दाँत ने अपने जीवन भर मुझे खिलाया -पिलाया और हंसाया भी खूब , उसे ही अब उखाड़ फेकने को कह रहे थे वह | खैर मजबूरी है उनकी बात मानना , नहीं तो दाँत का दर्द ही वो दर्द है जो इस बात को झूठ सिद्ध कर देता है कि 'मर्द को दर्द नहीं होता ' | 

अभी तो पेन किलर खा कर उस दर्द का बखान लिख रहा हूँ | कल की  शाम फिक्स हुई है ,उस शातिर को बाहर का रास्ता दिखाने के लिए |


शनिवार, 22 सितंबर 2012

" पैसे पेड़ पर नहीं उगते ......."


बहुत साधारण सी बात है कि, पैसे पेड़ पर नहीं उगते | यह जुमला अक्सर सुनने को मिलता है | मध्यम वर्ग के परिवारों में अक्सर बच्चे या महिलायें अगर किसी चीज़ की फरमाइश कर दे और कमाने वाला पुरुष अगर सीमित आमदनी वाला है तब वह बरबस उनकी फरमाइश सुन कर कह उठता है , पैसे पेड़ पर तो उगते नहीं | ऐसा नहीं है कि वह उनकी फरमाइश से इत्तिफाक नहीं रखता या पूरी नहीं करना चाहता पर हताशा वश ( अपने परिवार की इच्छा पूरी न कर पाने के दबाव में ) ऐसा कह उठता है | इस कथन के पीछे उसे भी मानसिक पीड़ा बहुत होती है | जब भी या जिस भी परिस्थिति में इस जुमले का प्रयोग किया गया हो या किया जाता हो , वह स्थिति अधिकतर लाचारी को ही दर्शाती है |

प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संबोधन में ऐसी बात कहना हास्यास्पद नहीं समझा जाना चाहिए | उनकी या उनकी पार्टी की आर्थिक नीतियाँ जो भी हो , उसे समझने और उसकी व्याख्या करने के लिए बहुत सारे विशेषज्ञ अपनी अपनी राय दे रहे हैं और समय समय पर देते रहते हैं | परन्तु अभी समय है इस पर चिंतन करने का कि प्रधान मंत्री ने पूरे देश के सामने इतनी गंभीर बात कह दी है ,इसका अर्थ है कि वास्तव में देश का खजाना खाली है और उनके सामनें लाचारी और बेबसी की स्थिति है | उन्हें अच्छी तरह से मालूम है कि अगले लोकसभा चुनाव के सन्निकट ऐसी बाते करने से उन्हें लाभ के स्थान पर भारी नुकसान ही होने वाला है फिर भी उन्होंने ऐसी आत्मघाती बात कही है | 

दोष किसका है , यह तो तय होता रहेगा ,सर्व प्रथम आवश्यकता इस बात की है कि ऐसी स्थिति से बाहर कैसे निकला जाय | संसाधनों का अत्यंत सीमित प्रयोग पहला कदम होना चाहिए | समृद्ध व्यक्ति धन के बल पर पेट्रोल / डीज़ल / गैस / बिजली का दुरूपयोग करता रहे और बाकी लोग अभावों में झूझते रहे ,इस पर अंकुश की आवश्यकता है |

भ्रष्टाचार या घोटाले जो भी आजकल चर्चा में है उसमे शामिल धन का आकलन काल्पनिक अधिक और वास्तविकता में कम है | ज्यादातर ऐसे तथ्य उजागर हुए हैं कि अगर आबंटन ( चाहे कार्य का हो , चाहे लाइसेंस का ) खुली निविदा से होता तब ऐसा नहीं ऐसा होता | अगर वैसा होता भी तब भी देश की अर्थ व्यवस्था में कोई सुधार न होता | किसी क्लोज्ड सिस्टम की गुणवत्ता में सुधार तभी संभव है जब उसमे बाहर से अधिक गुणकारी चीजें जोड़ी जाए | जब तक अपने देश में बाहरी देशों के लोग व्यापार / उद्योग को स्थापित नहीं करेंगे अर्थ व्यवस्था में सुधार संभव नहीं है | एक छोटे से उदाहरण से इसे यूं समझा जा सकता है कि जैसे अपने देश में ही जो भी तीर्थ स्थान हैं , दूर दराज़ में अनेक मंदिर बने हुए हैं अगर वहां बाहर से लोग आना बंद कर दे तब मात्र चौबीस घंटों में ही उनका सारा अर्थ शास्त्र बिगड़ जाएगा | धन का प्रवाह जितना अधिक और जितने अधिक देशों में होगा उतना ही हमारा रुपया मजबूत होगा | बिना विस्तार के मुद्रा भी संकुचित होती रहती है और यह स्थिति आज सारे विश्व की है | पुराने जमाने में प्रचलित बार्टर सिस्टम आज भी लागू है | जिसके पास पेट्रोल / डीज़ल है वह उसके बदले आपसे मनमानी से रेट मांग रहा है | अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में हमें हमारे उत्पादों की गुणवत्ता बढाकर खुद को स्थापित करना होगा | 

प्रधान मंत्री की बात के दूरगामी परिणामों पर विमर्श किया जाना चाहिए | विकल्प के तौर पर कौन लोग उपलब्ध है और कितने सच्चरित्र हैं , सब सबके सामने हैं | क्षेत्रवाद , जातिवाद और परिवारवाद से परे कोई नहीं |

बस एक बात ही सरल सी समझ आती है "आवश्यकताएं कम कर लो , समृद्धि महसूस होने लगेगी " | समृद्धि का सीधा अर्थ रुपये के अंतर्राष्ट्रीय मूल्य के सापेक्ष देखा जाना चाहिए | अगर रूपए का अवमूल्यन हो रहा है , इसका अर्थ है कि जो समृद्धि दिख रही है वह कुछ लोगों तक ही सीमित है और वह भी कुछ समय तक के लिए ही सीमित रहेगी |  

बुधवार, 19 सितंबर 2012

" चलती कार में ठिठकी निगाहें ......"



साथ उसका और ,
सफ़र कार का,
बाहर मौसम सुहाना था,
भीतर वह दीवाना था ,
निगाहों में उसके रफ़्तार थी,
मेरी निगाहें उस प्यार पे थीं ,
उंगलियाँ उसकी गुनगुनाती जब थी ,
मैं लजाती शर्माती इठलाती तब थी ,
पलकें मेरी गिरती उठती ,
और सहमती थी भय से ,
पर जब भी देखा था हौले से ,
मुस्करा के उसने ,
निगाहें  तब तब ठिठकी सी थी |


रविवार, 16 सितंबर 2012

" अखबार फेंकते, ये हॉकर्स ........."


सवेरे तय समय पर अखबार न मिले तो कुछ उलझन सी लगती है | अब तो अख़बार में कुछ नया नहीं होता पढने को , सब कुछ टेलिविज़न या नेट की न्यूज़ से पता चल जाता है , फिर भी अखबार की तलब तो लगती ही है | जब पहली चाय के साथ अखबार न हो तो चाय भी बे-स्वाद ही लगती है |

मौसम कैसा भी हो , बारिश जम के हो रही हो या  कोहरे में हाथ को हाथ न सूझ रहा हो ,फिर भी अखबार तय समय पर मिल जाए ,यह उम्मीद रहती है और मिलता भी है | अक्सर जब विपरीत मौसम में अपने हॉकर को देखता हूँ , अखबार देते हुए , उसकी निष्ठा के प्रति सम्मान उमड़ जाता है |

अमूमन सभी अखबार रात को २/ ३ बजे के बाद ही प्रेस से निकलते हैं | तभी से इन हॉकर्स की दिनचर्या आरम्भ हो जाती है | अखबार के सभी पन्नों को क्रम से लगाना ( अब तो शायद यह मशीन से ही संभव हो गया है ) , फिर उसके भीतर कोई न कोई विशेषांक रखना और प्रायः सभी अखबार के भीतर विज्ञापन के पैम्फलेट रखना , यही शुरुआत होती है , अखबार के हॉकर्स के काम की | सारे अखबार जो उन्हें वितरित करने होते हैं उन्हें वह अपने क्षेत्र मे बांटने के क्रम में सजा लेते हैं | ख़बरों के इस बोझ को वह अपनी साइकिल पर लाद कर निकल पड़ते हैं , फेंकने को खबरे रोज़ रोज़ की,हमारे आपके घरों में |

अखबार में क्या छपा है , इससे इतर उनके मन में साइकिल पर चलते चलते कुछ यूं चलता होगा : 

शर्मा जी के यहाँ जागरण और टाइम्स देना है , बाजपेई जी के यहाँ खाली हिन्दुस्तान | आहूजा साब के यहाँ कुत्ता न बैठा हो गेट की आड़ में | सरकार जी के यहाँ फिर वह आंटी खड़ी मिलेंगी हल्ला करते हुए कि , तुम अखबार पानी में क्यों फेंकते हो | सलूजा साहब कहेंगे , अखबार मोड़ कर मत दिया करो , सीधा सीधा डाला करो ( बाद में रद्दी बेचते समय ज्यादा पैसे मिल जाते होंगे शायद ) | छोटे घरों में अखबार देना आसान होता है , एक पैर पर साइकिल टिकाई और बैठे बैठे ही घंटी बजाकर फेंक दिया या फंसा दिया दरवाजे में और बड़े घरों में , आगे खुला मैदान ,उसमे दो चार कुत्तों की जमात ,जो देखते रोज़ हैं पर भौंकते भी रोज़ है ( शायद अखबार की खबर का भान रहता है उन्हें कि फिर खबर छपी है उसमें कुत्ते सरीखे आदमियों की ) । कितना भी जोर से फेंको , बरामदे तक पहुंचता नहीं और वह मुआ कुत्ता उसे फाड़ देता है | अब रुको पहले, फिर  घंटी बजाओ , किसी के आने की प्रतीक्षा करो तब उन्हें दो , नहीं तो अगले दिन की चिड चिड झेलो | मेरे बारे में सोचता होगा कि टाइम्स आफ इंडिया और हिन्दुस्तान के तो पैसे देते हैं , उसके अलावा २/३ अख़बार तो इन्हें मुफ्त कूपन से मिल जाते हैं ( खूब रद्दी बेचते होंगे ) | अरे! नहीं भाई , ये प्रेस वाले जबरदस्ती कूपन पकड़ा जाते हैं तो क्या करें | रद्दी तो कभी हमने बेचीं ही नहीं | घर पर काम वाली ले जाती है ,उसके बच्चे उससे लिफाफा बना बेचते हैं | 

साल के बारहों महीने एक सा काम , एक तय समय का रूटीन , मेरे ख्याल से इन हॉकर्स के अलावा और किसी भी काम का इतना सख्त रूटीन नहीं होता होगा | मजे की बात हर कोई चाहता है , मोहल्ले में अखबार सबसे पहले उसे मिले | जितनी तल्लीनता से और निशाना साध कर यह हॉकर्स अखबार दूसरे /तीसरे माले तक फेंक देते हैं , वह काबिले तारीफ़ है | अगर इन्हें शूटिंग प्रतियोगिता में भेजा जाये , शर्तिया मेडल ले कर ही लौटेंगे | 

अखबार की खुशबू हाथ में आते ही कितने लोगों की शारीरिक पाचन क्रिया तत्काल गुड़गुड़ाहट के साथ अपना दायित्व पूरा करने को तत्पर हो जाती है | गोया अखबार हाथ में न आये तो मूड फिर बनता ही नहीं | कुछ का अखबार पढ़ते पढ़ते, उससे मुंह ढँक कर दुबारा सोने का मजा ही कुछ और है | कहीं कहीं क्रॉस वर्ड या सुडोकू कौन पहले हल कर डालेगा , इसका झगडा और कहीं तो सारे पन्ने अलग अलग बँट जाते हैं ,कोई स्पोर्ट्स ले गया कोई सिटी विशेषांक और कोई मुखपृष्ठ |

जो भी हो मुझे तो इन हॉकर्स में अपने काम के प्रति लगन , जिम्मेदारी , कंसंट्रेशन भरपूर दिखता है और याददाश्त तो इनकी गजब की होती है और निशाने का भी कोई जवाब नहीं और न ही निशानदेही का |

शायद यूरोपियन देशों में इसीलिए बच्चों को अखबार वितरित करने का काम सौंपा जाता है ,'सेन्स आफ़ रेस्पोंसबिलीटी' डेवलप करने के लिए । 

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

" राष्ट्रीय भाषा अथवा राष्ट्रीय राजमार्ग........"


छोटे छोटे गाँव / कस्बों / देहातों में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाने के लिए पगडंडियों जैसे अनेक टेढ़े मेढ़े परन्तु कम दूरी के रास्ते होते हैं | इन पर केवल वहीँ के रहने वाले लोग सुगमता से चल सकते हैं | वृहद स्तर पर देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से की यात्रा के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग होते हैं,जिन पर हर कोई सुगमता से चल सकता है | 

क्षेत्रीय भाषा एवं राष्ट्रीय भाषा का भी स्वरूप कुछ ऐसा ही है | राष्टीय भाषा राष्ट्रीय राजमार्ग जैसी होनी चाहिए , एकदम साफसुथरी और सबके लिए सुगम और सुलभ , जिससे वह पूरे देश को एक साथ जोड़ सके | भले ही राष्ट्रीय राजमार्ग के रास्ते में पड़ने वाले क्षेत्रों में पगडंडियों जैसी अनेक क्षेत्रीय भाषाओं का सामना क्यों न करना पड़े | क्षेत्रों के विकास के लिए ये पगडंडियाँ  जैसी क्षेत्रीय भाषाएँ भी आवश्यक ही हैं | 

"हिंदी" भाषा भी हमारे देश में एक कोने से दूसरे कोने तक राष्ट्रीय राजमार्ग जैसी ही प्रतिपादित और विकसित की जानी  चाहिए | इस राष्ट्रीय राजमार्ग पर कहीं कहीं अंग्रेजी भाषा सरीखे फ़्लाइओवर भी हैं ,पर कितने भी फ़्लाइओवर बन जाएँ , पुराने रास्ते कभी बंद नहीं होते और न ही उन पर चलने वालों की संख्या में कमी आती है |

हिंदी भाषा का सम्मान और इस पर गर्व किया जाना चाहिए | किसी देश की मौलिक पहचान उसके राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय भाषा से ही की जाती है | इसके अतिरिक्त अन्य भाषाओं का ज्ञान अर्जित करना अपने आप में बहुत अच्छी बात है, परन्तु हिंदी पर व्यंग कर अन्य भाषाओं को महत्व देना शर्म और दुर्भाग्य की बात है |

हर्ष की बात है कि हिंदी ब्लॉग जगत में लोग उत्साह के साथ हिंदी का प्रयोग कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे प्रचारित और प्रसारित कर रहे हैं |

विदेश में रह कर हिंदी में लेखन करने वालों का इसमें अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है |

रविवार, 9 सितंबर 2012

" घटनाओं का क्रम और हमारा भ्रम ........."


जीवन ,मृत्यु , निर्माण , विध्वंस ,जय , पराजय , मिलना , बिछुड़ना ,यह सब ऐसी घटनाएं है जो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में घटित होती । इन होने वाली घटनाओं के क्रम को हम अपने सुचारू जीवन के हँसते खेलते भविष्य के अनुसार तय कर लेते हैं । तय क्रमानुसार घटनाएं घटित होती रहती हैं तब हम ईश्वर को विस्मृत कर स्वयं को ही इस संसार का सबसे बड़ा कर्त्ता और नियंता समझ बैठते हैं । जैसे ही घटनाएं अपना क्रम बदल लेती हैं , हमारा भ्रम टूट जाता है और क्षण भर में हम धराशायी और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं ।

कल शाम शिवम जी ने पाबला साब के पुत्र के निधन की सूचना जब फोन पर दी , मैं स्तब्ध रह गया । अभी 26/27 अगस्त की बात है ,जब पाबला साब मेरे घर पर थे और कितना आनंदित हुए थे हम लोग उनके सानिध्य में ,उनके जिंदादिल और खुशदिल व्यवहार से । बातों बातों में ही मजाक में मैंने कहा था कि अब आपके बेटे की शादी में आपके घर आऊंगा , आप बुलाओ चाहे न बुलाओ । उन्होंने कुछ तस्वीरे भी दिखाई थी मुझे अपने बच्चों की , मेरे ही सिस्टम पर । उन्हें जब मैं स्टेशन छोड़ने गया था , चलते समय अत्यंत भावुक हो गए थे वह । उसके बाद से मेरी उनसे फोन पर भी अनेक बार बात हुई ।

कल यह सूचना मिलने के बाद उनसे फोन पर बात करने का साहस नहीं कर पा रहा हूँ । मेरे फेसबुक पर कवर फोटो में उनके साथ हम लोगों की तस्वीर लगी है । उसमें उन्हें हंसता देख कर उनके इस दुःख की कल्पना मात्र से ही सिहरन सी हो रही है । कैसे वह इस भयंकर दुःख को बर्दाश्त कर पायेंगे ।

घटनाएं तो सभी घटित होना तय होती हैं । ईश्वर से प्रार्थना है कि बस उनका क्रम ऐसे न बिगड़ने दें कि जिससे मनुष्य व्यथित हो कर अपने ही जीवन के होने और न होने के बीच उलझ कर इस अमूल्य जीवन से ही विमुख हो जाए ।बस यहीं आकर हम लोगों की सोचने और तर्क करने की शक्ति समाप्त हो जाती है ।

अंत में बस परम पिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि पाबला जी को और उनके परिवार को इस दुःख को सहन करने की शक्ति प्रदान करें और उनके प्यारे से बेटे को अपने पास स्वर्ग में स्थान दें ।

     

शनिवार, 8 सितंबर 2012

" रेसिपी , एक अच्छी चाय की ......"


मैं बिस्तर से सवेरे उठने को ही था कि श्रीमती जी ने नींद में ही जम्हाई लेते हुए मुझसे कहा ," आज चाय आप बनाइये न प्लीज़ "| सच तो यह है कि किचेन के नाम पर मुझे बस वाटर प्योरीफायर से पानी लेना आता है |हाँ! पर ऐसा भी नहीं कि चाय न बना पाऊं | मैंने मन ही मन सोचा चलो आज चाय बना ही देते हैं | दो कप चाय बना कर बड़े  करीने से ट्रे में रख कर मैं उनके पास ले गया | पहली चुस्की लेते ही उनकी आँखों में रोशनी आ गई और चहकते हुए बोली ,"चाय तो आपने बहुत अच्छी बनाई है" | मुझे लगा ,कहीं ये फ्यूचर इन्वेस्टमेंट तो नहीं है इनका | फिर भी तारीफ़ सुनना अच्छा तो लगा | मैंने कहा , अरे मैंने तो यूँ ही बना दी , तुम्हे अच्छी लग रही है , क्योंकि तुम्हे बिस्तर पर ही बनी बनाई जो मिल गई | वे बोली ," अरे नहीं सच में अच्छी बनी है , मुझसे ऐसी नहीं बनती कभी | आप इसकी रेसिपी लिख दीजिये , मैं भी ऐसे ही बनाऊँगी  | मैंने सोचा, मैंने तो साधारण तरीके से बस एक चाय ही बनाई है, इन्हें इतनी अच्छी क्यों लग रही है | मनन करने पर अच्छी चाय की रेसिपी कुछ यूं नज़र आई :

1. अव्वल तो चाय मांगी जाय प्यार से और दुलार से।

2.बनाने वाला प्यार से बस उसी को मन में सोचते हुए चाय बनाए ।

3.चीनी डालते समय दिल में पीने वाले का ही ख्याल रहे तब मिठास सीधे उसके होंठों से होते हुए दिल तक पहुंचेगी ।

4.चाय की पत्ती डालने के बाद उबाल आने पर उसमें उन्हीं का अक्स देखने की कोशिश करें। सच मानिए आपको उसमें उनका अक्स नज़र आयेगा,अगर आपने चाय सच में उनके लिए प्यार से और दिल से बनाई है ।

5.चाय बनने के बाद बस प्यार भरी नज़रों से उनकी आँखों में आँखें डालकर चाय की प्याली थमा दीजिये फिर देखिये ,अब यह चाय अमृत जैसी ही लगेगी भले ही चाय में चीनी ,पत्ती ,और दूध कैसे और कितना डाला जाए ।

6.चाय का फ्लेवर flavonoid ( अक्षय कुमार वाला ) से नहीं feelings से आता है ।

" प्यार से कोई चाय बनाने को कहे तो फिर बनाने का मन तो करता ही है बस कहे तो एक बार प्यार से ।"

बुधवार, 5 सितंबर 2012

" कविता भी रूठ गई ......"


रात गहरी हो चली थी | मैं अपनी आँखें मूंदे मूंदे ख्यालों में एक कविता गुन, बुन रहा था | गुनते ,बुनते कब आँख लग गई पता नहीं चला | सपनों में , हाँ ,सपना ही रहा होगा,मैं अपनी कविता को शब्दों , भावों और स्मृतियों से सजा रहा था । तभी  देखा ,मेरी कविता अकस्मात मेरे सामने तन कर खड़ी हो गई और मुझसे बोली ,"आज तुम मेरा श्रृंगार-विंगार मत करो ,पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो |" मेरे लिए अचानक यह अचंभित करने वाली घटना थी | मेरी ही कृति मुझसे प्रश्न कर रही थी | अपने को संयत करते हुए मैंने अपनी कविता से कहा , क्या बात है , क्या शंका और सन्दर्भ है तुम्हारा |

मेरी कविता : जबसे तुम युवा हुए हो , तुमने मुझे अपने ह्रदय में बसा रखा है | तबसे बरसों बीत गए और तुम सबके सामने मुझे ही प्रस्तुत करते रहते हो | मुझे तुम कभी आंसुओं के आवरण में और कभी वेदना से सुसज्जित कर ,स्वयं तो मेरे पीछे छुप जाते हो और दुनिया के सामने मुझे पेश कर देते हो | बहुत पीड़ा होती है मुझे जब लोग मुझे शब्द-शब्द , भाव-भाव ,पोर पोर से उद्घाटित करते हैं और मेरे दर्द में वे स्वयं आनंद की अनुभूति करते हैं | बार बार आखिर कितनी बार तुम मेरा सहारा लोगे  ,स्वयं को अभिव्यक्त करने में | 

सच तो यह है, तुमको जब भी कोई अपना सा मिलता है, कुछ भाने सा लगता है ,तुम स्वयं को उसके सामने प्रस्तुत कर कुछ कहना चाहते हो पर यह क्या, स्वयं तुम चुप रह कर मुझे सजाते संवारते हो ,उसके सामने पेश कर देते हो | वे सब भी मुझ पर तुम्हारे ही द्वारा लादे गए आभूषणों से रोमांचित और पुलकित होते हैं , थोड़ा निहारते हैं ,मुस्कराते हैं,अपना जी भर लेते हैं ,बस और कुछ नहीं | मैं भी अब थक गई हूँ , तुम्हारे बदले सारी दुनिया से रू-ब-रू होते होते  |

मेरा दिल भी अब तुम्हारे पास नहीं लगता | मुझे भी किसी एक के ही हवाले कर दो | सुख चैन से उसी की हो कर रहूँगी | रोज़ रोज़ तुम्हारे आंसुओं में नहाना तो नहीं पडेगा | कभी एक पाँव मेरा तुम चाँद पर रखते हो और दूसरा दरिया में | फूलों की खुशबू से ज्यादा काँटों से सजाते हो | दर्द इतना भर देते हो कि अन्दर ही अन्दर सांस लेना मुश्किल हो जाता है | लबों को मेरे, तुमने न जाने कितनी बार छुआ होगा सबके सामने, कि अब तो सबके सामने जाने में लज्जा सी लगती है | दर्द ही सजा मिला है सदा वहां ,जहां तबस्सुम को भी होना चाहिए कभी |

अपनी कविता का यह रूप देख मैं स्तब्ध रह गया | मैं कुछ सोचने को विवश हो ही रहा था कि मेरी कविता ने आज मुझ पर ही कुछ पंक्तियाँ लिख दी  :

दो बोल अब बोल भी दो , 
दिल का राज़ खोल भी दो,
मत लिखो कोई नई कविता,
बह जाने दो आँखों से सरिता,
कर जाओ मुझे भी अब मुक्त,
करके प्यार को अपने उन्मुक्त |

मैं अपनी कविता द्वारा लिखी चंद पंक्तियों के अर्थ को समझने का प्रयास कर ही रहा था कि वह मुस्करा कर उठ खड़ी हुई और कभी न आने की बात कर चली गई | अब शायद कभी न लौट कर आये मेरी कविता |

अब तक मेरी उनींदी आँखें खुल चुकी थी और मुझे दिख रही थी एक धुंधली सी कविता ,रूठ कर जाते हुए |

रविवार, 2 सितंबर 2012

" हँसना मना है........"

मनुष्य और अन्य प्राणियों में सबसे बड़ा अंतर यह है कि केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो हँस सकता है | अब वो चाहे अपने ऊपर हँसे अथवा दूसरों पर हँसे | जब मनुष्य अपने ऊपर हँसता है तो आत्मस्थ ,जब दूसरों पर हँसे तो परस्थ हास्य कहलाता है |

हँसी के छः प्रकार होते हैं : 'स्मित','हसित','विहसित','उपहसित','अपहसित' और 'अतिहसित' | 'स्मित' में कपोल ज़रा मुस्कराते प्रतीत होते हैं,दांत नहीं दिखाई पड़ते | 'हसित' में दांत ज़रा दिखाई पड़ते हैं | 'विहसित' में आँखें सिकुड़ जाती हैं ,ज़रा आवाज़ भी होती है ,मुँह लाल भी हो जाता है | 'उपहसित' में कंधे भी सिकुड़ जाते हैं ,सर हिलता है | 'अपहसित' में बेमौके की हँसी होती है , आँखों में पानी आ जाता है | 'अतिहसित' में आँखों से पानी बहता है, आवाज़ अधिक होती है , हाथ से बगल को दबा लिया जाता है |

उपरोक्त व्याख्या इतनी सूक्ष्मता से भरत मुनि ने हज़ारों वर्ष पहले अपने ग्रन्थ में दी है |    

निम्न चित्र में पायी गई हँसी ऊपर वर्णित हँसी से सर्वथा भिन्न है | इसमें लोग बुक्का फाड़ कर , फूट फूट कर और लोट लोट कर हँस रहे हैं  :-


मैं ,पिछली पोस्ट की मेहमान और निवेदिता