मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

'एक और साल' धकेला पीछे ......


पिछले साल भी यहीं खड़े थे जब २०१२ को विदा कर रहे थे और २०१३ के लिए सबको शुभकामनायें दे और ले रहे थे और आज फिर वही मुकाम और मौका बस लेन देन का । क्या किया पिछले एक बरस में ,कुछ भी तो नहीं ,वही रोजमर्रा की ज़िन्दगी । बस अपने और अपनों के लिए जीना ,न कभी अपनों के अलावा किसी के लिए कुछ सोचा ,न किया । लगता है जैसे हम आगे नहीं बढ़ रहे हैं बल्कि हम साल भर इस पूरे समूचे साल को पीछे धकेलते रहते हैं और हमें गुमान होता है कि हम आगे बढ़ रहे हैं ।

कुछ सवाल जिनकी कसौटी पर मैं खुद को खरा नहीं पाता :

१. क्या मेरे किसी कार्य से किसी अनजान के चेहरे पर ख़ुशी आ पाई !

२. क्या मैंने कोई ऐसा कार्य किया जिसके लिए न रहने पर भी मुझे याद किया जाए !

३. क्या समाज में व्याप्त किसी रूढ़ि को तोड़ पाने में सफल हुआ !

४.  क्या कोई ऐसा कार्य किया जो अन्य लोगों के लिए अनुकरणीय हो !

५. क्या किसी अनजान अशिक्षित को शिक्षित करने में कोई योगदान किया !

६. क्या कभी रक्तदान किया ।

७. क्या बिना स्वार्थ के किसी की कोई मदद की ।

८. क्या कभी किसी रोते हुए को चुप कराने का सामर्थ्य जुटा पाये !

९. क्या सक्षम होते हुए भी कभी मदद न कर पाने का बहाना नहीं किया !

१०. क्या कभी जानते हुए भी गलत बात को जोर देकर सच साबित करने का प्रयास नहीं किया ।

उपरोक्त सभी बिदुओं पर मै पूरे साल असफल रहा ,बस एक बार रक्तदान अवश्य किया । इसके अतिरिक्त इस साल ऐसा कोई काम मैंने नहीं किया जिस पर आप लोग 'वाह' कह सकें । अपने परिवार का भरण पोषण तो जो मनुष्य नहीं है ,वह भी कर लेते हैं ।

अब नए साल पर फिर वही शुभकामनाओं का दौर ,पता नहीं क्यों सब खोखला सा लगता है ।  

सोमवार, 23 दिसंबर 2013

" कम से कम इतना तो है ......"

पाँच राज्यों में चुनाव हुए ,सरकारें चुनी गई ,मुख्यमंत्री बने । सभी नए मुख्यमंत्रियों ( दिल्ली को छोड़ कर ) के चेहरे खिले खिले से ,विजयी मुस्कान लिए ,चेहरे पर राजा बन जाने के भाव ,लम्बी गाड़ियों के काफिले और दिल्ली में जब से अरविन्द केजरीवाल का मुख्यमंत्री बनना तय हुआ ,उनके चेहरे पर चिंता के , जिम्मेदारियों के भाव और प्रबल हो गए । आँखों से नींद उड़ी उड़ी सी ,शायद मन में एक ही चिंता ,कैसे पूरा कर पाऊँगा जनता के वायदे । 


देखा जाए तो अरविन्द केजरीवाल के पास खोने को कुछ नहीं । पहली बार ही जनता का इतना विश्वास हासिल कर थोड़ा बहुत भी जनता की भलाई के कार्य कर दिए तो भी श्रेय ही मिलेगा । अगर वह चाहे तो तसल्ली से मुख्यमंत्री बन कर बाकी अन्य मुख्यमंत्रियों की तरह चेहरे पर राजसी भाव लिए शपथ ले लें और सरकारी तामझाम से अपने को घिर जाने दें पर नहीं उनके चेहरे पर चिंता /हताशा की लकीरें बता रही हैं कि उनके मन में कुछ कर गुजरने का भाव तो है । हो सकता है वायदे पूरे करने में सरकारी खजाने में धन का अभाव आड़े आये पर अगर मंशा साफ़ है तो परिणाम अच्छे ही होने वाले हैं । 


कल किसी बड़े नेता ने कहा देश को कार्पोरेट की तरह से नहीं चलाया जा सकता । ठीक ही है राबड़ी देवी चला सकती हैं ,अखिलेश यादव चला सकते हैं ,पुराने नेताओं के सुपुत्र चला सकते हैं पर एक ज्यादा पढ़ा लिखा व्यक्ति अगर देश चलाने आगे आता है तो वह कार्पोरेट कल्चर हो गया । सारे औद्दोगिक घरानों से सांठ गाँठ तो पुरानी बड़ी पार्टियों की ही है  । अरे अब तो कुछ अच्छा होने दीजिये ।कब तक 'still worse to come' की बाट जोहते रहेंगे ।  


कम से कम अरविन्द केजरीवाल की बॉडी लैंग्वेज तो यही कह रही है कि उनके मन में कुछ तो अच्छा करने को है । 

                                                            "भारतीय राजनीति में शायद कोई सेंटा क्लाज़ आ ही जाए "। 

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

"हाफ़िज़ खुदा ......."


आशिकी ने उनकी ,
गुदगुदाया तो है ,

मन ही मन आज ,
मन मुस्कुराया तो है ,

यूँ चाहते थे हमको ,
अब बताया जो है ,

गई जान जान से ,
गर भुलाया जो है ,

छलक क्यूँ गए आंसू ,
याद दिलाया ही तो है ,

ख़्वाबों को उनके अब ,
पलकों पे सुलाया ही तो है ,

माना मोहब्बत उनसे ,
आसाँ नहीं है अब ,

हाफ़िज़ खुदा तो कह दूँ ,
बस इतना चाहा ही तो है ।

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

"कैसे कैसे सर्वे ........"



यूँ तो अगर प्रतिदिन हिंदी और अंग्रेजी के राष्ट्रीय संस्करण के कोई भी दो समाचार पत्र पढ़ लिए जाएँ तो अद्दतन समुचित जानकारियां मिल जाती है फिर भी कुछ साप्ताहिक ,पाक्षिक और मासिक पत्रिकाएं समाचार पत्रों से अलग जानकारियां रोचक ढंग से उपलब्ध कराती हैं । अतः उन्हें भी पढ़ लेने का मन हो जाता है । पत्रिकाएं लेते समय सदा इस बात का ध्यान रहता है कि उस पत्रिका में किस तरह के समाचार और घटनाओं को प्रमुखता दी जाती है ।

कुछ पत्रिकाएं कादम्बिनी , नवनीत ,रीडर्स डाइजेस्ट जैसी होती हैं जिन्हे लेते समय यह विश्वास होता है कि इसमें कोई ऐसा प्रसंग नहीं छपा होगा जिसे सबके सामने पढ़ने में कोई असहजता हो । उसी श्रेणी में पहले इण्डिया टुडे पत्रिका का स्थान भी था । लगभग सारी खबरें राजनीति ,शिक्षा ,साहित्य,सिनेमा और खेलकूद से जुडी होती थीं । इसे पढ़ने में यह लाभ था कि अगर कभी समाचारपत्र में कोई समाचार पढ़ने से छूट गया हो तब भी वह समाचार इस पत्रिका में अवश्य मिल जाता था ।

इलेट्रानिक मीडिया के प्रमुख रूप से स्थापित हो जाने के बाद अब लोगों की रूचि पत्रिकाएं पढ़ने में कम हुई लगती हैं । पत्रिकाएं भी बाजार में अब नाना प्रकार की छपने लगी हैं । पता नहीं इतने कम सर्कुलेशन में उनका व्यवसाय चल कैसे पाता है । शायद इस प्रतिस्पर्धा से इण्डिया टुडे ग्रुप भी प्रभावित हुआ । अपनी गिरती लोकप्रियता के कारण होने वाली हानि की भरपाई करने के लिए उसने अब ऐसे विषयों को प्रमुखता देना प्रारम्भ कर दिया जो इस पत्रिका के लिए पहले अप्रासंगिक हुआ करते थे ।

इण्डिया टुडे के वर्त्तमान अंक में पत्रिका द्वारा जो सर्वे प्रकाशित किया गया है वह बेहद फूहड़ ,अश्लील और अनावश्यक है । इस प्रकार के विषय बेहद संजीदे होते हैं । इनके प्रस्तुतीकरण के लिए भाषा और चित्र बहुत गम्भीर और स्तरीय होने चाहिए । ऐसे प्रस्तुतीकरण के कारण इस पत्रिका के पाठकों की संख्या में कमी ही आने वाली है । इसमें प्रस्तुत तथ्य और जानकारियों से अधिक जानकारियां तो कालेज के समय में हम लोग जो सस्ती पत्रिकाएं किराए पर लाकर पढ़ते थे उनमे मिल जाया करती थीं , जबकि वह बेहद फूहड़ पत्रिका होती थीं ।

पत्रिकाओं को अपना क्षेत्र ,दायरा और पाठक वर्ग निश्चित रखना चाहिए । उन्ही के अनुसार विषयों का चयन होना चाहिए । अंग्रेजी भाषा की 'रीडर्स डाइजेस्ट' लगातार पढ़ते हुए मुझे लगभग पचीस वर्षों से अधिक हो गए और सभी अंक आज भी सुरक्षित हैं । उनमें भी सभी तरह के विषयों पर चर्चा होती है परन्तु भाषा अश्लील कभी नहीं होने पाती  ।

'साहित्य समाज का दर्पण होता है ' इस विषय पर बचपन में अनेक बार निबंध लिखने को मिला था । अब यह कैसा साहित्य परोसा जा रहा है समाज के लिए ,अथवा समाज ही ऐसा हो गया है ,समझ से परे है । लोगों का यह मत हो सकता है कि उठाये गए विषय से अधिक बहुत कुछ तो आज कल इंटरनेट पर भी उपलब्ध है । परन्तु पश्चिम की ओर अगर देखें तो वहाँ भी 'टाइम' और 'प्लेबॉय' जैसी पत्रिकाओं में बहुत स्पष्ट अंतर दिखाई पड़ता है ।

पत्रिका के प्रकाशन से जुड़े लोग इस प्रकार के सर्वों से निष्कर्ष क्या निकालना चाहते हैं ,यह कभी स्पष्ट नहीं करते , इसीलिए यह और भी घातक हो जाता है । संवेदनशील विषयों को अंत में अथवा प्रारम्भ में ही निष्कर्ष अवश्य दे दिया जाना चाहिए और ऐसे विषयों को स्थान देने के लिए तो पत्रिकाएं और भी हैं । इसे तो फिलहाल साधारण ही बने रहने दिया जाए । 

रविवार, 15 दिसंबर 2013

"चूज़ योर पेरेंट्स वेल ..choose your parents well "


कल राष्ट्रपति भवन में एक मीडिया चैनेल की ओर से आयोजित समारोह में विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट कार्य के लिए और वैश्विक स्तर पर प्रसिद्धि पाने के लिए भारत देश के राष्ट्रपति द्वारा उन विशिष्ट लोगों को सम्मानित किया गया । उनमे विज्ञान ,कला , समाज सेवा , संगीत , साहित्य ,सिनेमा ,खेलकूद लगभग सभी वर्गों से लोग चयनित किये गए थे । बस मीडिया को इस सम्मान में सम्मिलित नहीं किया गया था । जबकि प्रिंट मीडिया / इलेक्ट्रानिक मीडिया से भी अच्छा कार्य कर रहे विशिष्ट व्यक्तियों का चयन हो सकता था ।

इस समारोह की विशेष बात यह थी कि प्रत्येक सम्मानित व्यक्ति को अपने जीवन से प्राप्त तीन सींखें युवा पीढ़ी के लिए उनके मार्ग दर्शन के लिए बतानी थीं । सभी ने वही पुरानी बातें  कहीं कि ,"सपने बड़े देखो , हार से डरो नहीं , कठिन परिश्रम का कोई विकल्प नहीं , साहसी बनो , नए रास्तों पर चलो , आलोचना से डरो नहीं , अपने आस पास के लोगों के जीवन स्तर को ऊँचा करने में सहायक बनो और बहुत सी बातें कि माता-पिता /शिक्षक के प्रति आभारी होना चाहिए कि उनके बिना किसी भी सफलता का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता ।

सबसे अलग हटकर और डटकर बोला लेखक विक्रम सेठ ने । प्रारम्भिक बातें तो वही थीं कि हमें भिन्नता में एकता और सभी धर्मों के सम्मान में विश्वास करना आना चाहिए तभी हम देश के तिरंगे का उचित सम्मान कर सकते हैं । समाज का दायित्व है कि गरीबी जैसे अभिशाप को मिटाया जाए ।

अंत में उन्होंने कहा कि लगभग सभी अतिथियों ने अपने अनुभव बताते समय माता-पिता के प्रति सम्मान और श्रद्धा व्यक्त करने का उल्लेख अवश्य किया क्योंकि आज जो कोई भी जो कुछ है वह अपने माता-पिता द्वारा दी गई प्रारम्भिक शिक्षा /सीख /संस्कार/ वातावरण के ही कारण है । आगे उन्होंने कहा ," अतः युवा पीढ़ी क्या ,भावी पीढ़ी के लिए भी मेरी सीख है कि आप जन्म से पहले अपने माता-पिता का चुनाव स्वयं अच्छी तरह से करें । (choose your parents well) 

इस पर लोग हँस दिए और तालियां बज गई । यह ताली बजाने वाली बात नहीं है । बहुत गम्भीर बात है । सच बात तो यह है कि कोई भी अपने माता पिता का चयन नहीं कर सकता । फिर इतने विद्वान लेखक द्वारा यह बात क्यों कही गई । इस बात का युवा पीढ़ी से कहे जाने का अर्थ बस इतना सा है कि अब वह भावी माता-पिता है । अपनी संतान को ऐसी शिक्षा /सीख /संस्कार दें जिससे कि आने वाली पीढ़ी समाज में स्वयं को शिखर पर स्थापित करने के साथ साथ समाज को भी एक नया स्वरूप दे सके । जैसे माता-पिता अपने बच्चों पर गर्व करना चाहते हैं ,उसी तरह बच्चे भी अपने माता-पिता पर गर्व करना चाहते हैं ।

मेरे पिता जी ने एक बार कहा था कि जिस प्रकार गुलाब के पौधे से गुलाब ही निकलता है और कैक्टस के पौधे से कैक्टस ,उसी प्रकार बच्चे के व्यवहार / कार्यों से भी परिलक्षित होता है कि उसके मात-पिता कौन है ,किस पौधे का फूल है वह । सदा यह बात ध्यान रहे कि बच्चों के प्रत्येक शब्द / विचार/ सपनों /लक्ष्य से उनके माता-पिता का ही चरित्र परिलक्षित होता है ।

अतः युवा पीढ़ी अपनी संतति का पालन पोषण इस प्रकार न करें कि उनके बच्चों को कभी यह बात कहनी पड़े अपनी आगे की युवा पीढ़ी से कि "choose your parents well"

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

"हिंदी समाचार पत्रों की भाषा .........."


बचपन में प्रतिदिन हिंदी और अंग्रेजी का समाचार पत्र पढ़ना अनिवार्य सा था । उद्देश्य सामान्य ज्ञान बढ़ाने से अधिक शुद्ध भाषा का ज्ञान प्राप्त करना था । निबंध / लेख लिखने में कभी शब्दों की वर्तनी अथवा प्रयोग में संशय होता था तब उस शब्द को समाचार पत्र में ढूंढ कर उसकी शुद्धता और सार्थकता की जांच कर लेते थे । हिंदी भाषा की शुद्धता का सारा दारोमदार समाचार पत्र पर ही था क्योंकि अंग्रेजी की डिक्शनरी तो सरलता से सुलभ थी परन्तु हिंदी का शब्द कोष सरलता से सुलभ नहीं था । अनेक प्रमुख समाचारों का अंग्रेजी से हिंदी और हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद भी किया करते थे और फिर उसे समाचार पत्र में प्रकाशित समाचार से मिला कर उसे जांचते भी थे ।

धीरे धीरे पता नहीं क्या हुआ अंग्रेजी समाचार पत्रों ने तो अपनी भाषा को और भी परिष्कृत कर लिया परन्तु हिंदी भाषी समाचार पत्र स्थानीय भाषा में प्रयुक्त शब्दों का अधिक प्रयोग करने लग गए । जब कि स्थानीय भाषा या 'वर्नाकुलर' में छपने वाले दैनिकों की कमी नहीं है । राष्ट्रीय समाचार पत्रों को भाषा का उच्च स्तर ,शब्दों के चयन में शालीनता और शुद्धता का अवश्य ध्यान रखना चाहिए जो वास्तविकता में अब गौण हो चुका है ।

राजनीति करने के उद्देश्य से धार्मिक / जातिगत भावनाओं को भड़काने के लिए ऐसी शब्दावलियों का प्रयोग किया जाता है जिससे बचा भी जा सकता है । यथा दलित महिला से बलात्कार ,अब यदि केवल महिला ही लिखा जाये तब भी यह समाचार उतना ही गम्भीर है परन्तु दलित लिख कर अनायास क्षणिक आवेश उत्पन्न कराने का कार्य किया जाता है । आजकल 'हर्ष फायरिंग' / 'ऑनर किलिंग' का प्रयोग प्रायः किया जा रहा है जिसे पढ़ते ही भाषा दोष का आभास होता है । परीक्षा देते 'साल्वर' पकडे गए , अब 'साल्वर' नया शब्द बना दिया हिंदी का ,जो किसी भी प्रकार से समझ से परे है । ऐसे अनेक शब्द जैसे रौंदा ,गुंडई ,रपटा,ठोंका ,रंगरेलियां , जलवा, दारू का ठेका ,आबरू तार तार हुई ,इत्यादि न जाने कितने शब्द और शब्द विन्यास हैं जिनके प्रयोग से बचा जा सकता है और उनके स्थान पर अधिक उपयुक्त और शालीन शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है ।

अभी कुछ पत्रकार बंधुओं से मैंने इस विषय में चर्चा की तो उन लोगों ने बहुत चौकाने वाली बात बताई कि उन लोगों को अब यह निर्देश मिलते है कि घटना की प्रमुखता का ध्यान रख कर किसी भी प्रकार के शब्दों का चयन कर सकते हैं भले ही वह पूरी तरह से स्थानीय शब्द क्यों न हो और भाषा दोष होने का भी भय न करें । जनता को समाचार से अवगत कराना है वह भी खूब मसाले दार भाषा और शब्दों के संग परोस कर न कि समाज को हिंदी भाषा सिखानी है ।

दुःख हुआ यह जान कर कि प्रमुख हिंदी समाचार पत्र स्वयं हिंदी भाषा को परिष्कृत करने से अब किनारा कस  रहे हैं । समाचार पत्रों से अच्छी भाषा तो अब सोशल साइट्स पर पढ़ने को मिल जाती है ।

हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़े लोगों से अपील है कि कृपया देश की मातृ भाषा का स्तर उठाने में भी तनिक सहयोग करें , अन्यथा जैसे दूरदर्शन चैनल और बाक़ी चैनल की गुणवत्ता में अंतर स्पष्ट दिखाई पड़ता है वैसा ही चिर अंतर हिंदी और अंग्रेजी भाषा के समाचार पत्र  में बना रहेगा ।


सोमवार, 9 दिसंबर 2013

"खुला पत्र ,केजरीवाल के नाम ………"

आदरणीय केजरीवाल साहब,

बधाई आपको और आपकी टीम को ,अभूतपूर्व विजय के लिए । कांग्रेस पार्टी एक बहुत पुरानी राष्ट्रीय पार्टी है । शासन करते करते उसने आम जनता को निरीह / असहाय वर्ग का प्राणी मान लिया था । परिवारवाद की आड़ में तमाम नेता अपनी करनी से देश और देश की जनता का बेडा गर्क करते गए और अपना भर पूर भला करते रहे । कांग्रेस के शासन काल में महंगाई / भ्रष्टाचार / कुशासन चरम पर रहा ।

आम आदमी एक सच्चा साधारण सा बस आम आदमी होता है । वह इतना चाहता है बस कि उसके सारे काम सत्ता में बैठे लोग ईमानदारी से करते रहे । समाज में भय का वातावरण न हो । उनकी बहू / बेटियां अपने घरों / कार्यस्थलों में सुरक्षित रहे ।गरीब आदमी भी कम से कम दो वक्त कम पैसों में अपना पेट भर सके ।

आप और आपके नए सदस्य अभी चुन कर आये हैं । आप लोग बिलकुल ही नए हैं इस माहौल के लिए । बहुत अधिक श्रम कर आप यहाँ तक पहुंचे हैं । आपके पास इनसे लड़ने के लिए न पर्याप्त धन है और न संसाधन । आंकड़े जिस स्थिति को बयान कर रहे हैं उसमे पूरी उम्मीद है कि दूसरा दल आपके दो / चार सदस्यों को धन / वैभव के बल पर अपनी ओर खींचने का प्रयास अवश्य करेगा । लोभ का आकर्षण बड़ा लुभावना होता है । बड़े बड़े ऋषि मुनि भी डोल जाते हैं ,इतिहास इसका गवाह है ।

जीते हुए सदस्य कभी भी पुनर्मतदान नहीं चाहते । चुनाव लड़ने में और ख़ास कर जीतने के बाद सदस्य एकदम थक जाता है और निढाल सा हो चुका होता है । हारा हुआ नेता तो पुनः चुनाव में रूचि ले लेता है क्योंकि उसे उम्मीद हो जाती है कि शायद दुबारा वह जीत जाए । यह बात सभी पार्टियों पर लागू होती है । आप के लोग तो विशेष कर पुनः चुनाव नहीं चाहेंगे ,क्योंकि आपके पास तो धन का भी अभाव है और कार्यकर्ताओं का भी । ऐसे में आपके सदस्य सबसे अधिक आसानी से 'टारगेट' किये जा सकते हैं दूसरे दल द्वारा ।

चुनाव से पहले और अब चुनाव जीतने के बाद आपने भी अब तक अपने सदस्यों में थोड़ा परिवर्तन अवश्य महसूस किया होगा । यह मानव स्वभाव है । यह चुनाव आपने वर्त्तमान सरकार की कमियां / गलत नीतियां / नान-परफार्मेंस को जनता के सामने रख कर जीता है । अब आपको सरकार में रहकर ,भले ही विपक्ष में ,उन सभी कमियों को पूरा कराना है । पानी / बिजली / महंगाई की समस्या से निजात दिलाना है जो बहुत आसान नहीं है । किसी समस्या को सामने उठाना ,कमिया निकालना ,घटनाओं का विश्लेषण करना बहुत सरल है परन्तु पूर्व से ही प्रयास कर अपेक्षित परिणाम दे पाना कहीं कठिन ।

'आई आई टी' से निकलने के बाद अनेक स्वर्णिम अवसर छोड़ आप सरकारी नौकरी में आये । आप भी बाक़ी लोगों की तरह ऐशोआराम की ज़िन्दगी जी सकते थे परन्तु आपने अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीना स्वीकार किया और उसी जूनून का फल है कि आपको जनता ने अपना प्रतिनिधि बड़ी उम्मीदों के साथ चुना । आपके सभी साथी भी आपकी तरह ही जुनूनी हो तभी जनता की उम्मीदों पर आप खरे उतर पाएंगे ।

इस समय देश की राजनीति करने वाले लोग बहुत गंदे हैं । वे आपको और आपके साथियों को नैतिक /अनैतिक कामों में उलझा कर जल्दी से जल्दी आपका अंत करना चाहेंगे ।  आपको बहुत सोच विचार कर ,ठोंक बजा कर निर्णय लेना होगा । अन्ना के आंदोलन के समय आप अपने साथियों में मन मुटाव देख ही चुके हैं ।

ईश्वर आपका साथ दें और आपके साथियों को विवेक और सद्बुद्धि दें जिससे वे अपने इर्द गिर्द फैले दुश्मनों को पहचान सके । अब अगर यह मौक़ा निकल गया तो भारत की राजनीति में फिर कभी कोई सुधार न हो सकेगा । बस अभी आप विपक्ष में रहकर सरकार की नाक में इतना दम करते रहिये कि उसे गलत करने में सौ बार सोचना पड़े और हाँ समस्याओं को हल करने में अपना सुझाव देकर सरकार का सहयोग भी करें यही स्वस्थ प्रजातंत्र होगा ।

अंत में यह भी अवश्य निवेदन करूंगा कि आप अपने स्वास्थ्य का ध्यान अवश्य रखें तभी आप जन कल्याण करने में अपना शत प्रतिशत योगदान दे पाएंगे ।

----------------------------------------------------------------एक आम आदमी । 

मंगलवार, 26 नवंबर 2013

" आरुषि............. "


क्यों और कैसे हो जाता है यह सब । सहसा विश्वास करना सरल नहीं होता कि ऐसी घटनाएं भी हो सकती हैं । सामाजिक और आर्थिक रूप से प्रतिष्ठित परिवार में कहाँ चूक हो गई । आरुषि के माँ बाप भी उसे स्वभाविक रूप से बहुत लाड प्यार से ही पालते  रहे होंगे । किसी भी चीज़ की कमी से कभी उसे अखरने नहीं दिया गया होगा । मुंह से निकला भी न होगा कि 'बार्बी डॉल' से लेकर लेटेस्ट 'प्ले स्टेशन' ,'मोबाईल' ,'आई पॉड' ,'आई पैड' ,'आई फोन' इत्यादि की लाइन लगा देते रहे होंगे । फिर हुआ क्या ,क्या कम पड़ गया परवरिश में । ऐसा क्या था जो आरुषि को उसके माँ बाप नहीं दे पाये । 

बस 'समय' ही नहीं दे पाये आरुषि को उसके माँ बाप । बचपन से जब बच्चा धीरे धीरे बड़ा होता है वह अपने आस पास के लोगों से ही ज्यादा घुलता मिलता है । अगर माँ बाप बच्चे को कम समय देते हैं और नौकर ज्यादा रहता है बच्चे के संग तब बच्चा भी नौकर से ही ज्यादा घुल मिल जाता है । माँ बाप यह देख कर अत्यंत प्रसन्न होते हैं कि नौकर के संग उनका बच्चा बहुत खुश है और वह आराम से अपनी व्यस्तता बरकरार रखते हैं । माँ बाप यह सोच कर आश्वस्त रहते हैं कि बच्चा अभी छोटा है जब बड़ा होगा तब उसे अपने अनुसार समझा कर जैसा चाहेंगे बना लेंगे । बस यहीं गलती हो जाती है । शुरू से ही बच्चे के अवचेतन मस्तिष्क पर यह बात घर करने लगती है कि यह जो माँ बाप हैं इनका काम बस भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करना है और मन की बात साझा करने के लिए नौकर का ही सहारा है । 

प्रायः नौकर इस बात से बहुत खुश होते हैं जब माँ बाप किसी अन्य व्यक्ति से कहते हैं कि उनका बेबी तो उन दोनों की बात नहीं मानता पर नौकर की सब बात मान लेता है और उसके हाथों खाना भी आराम से खा लेता है । यही छोटी छोटी बातें बच्चे को माँ बाप से कोसों दूर करने लग जाती हैं । व्यस्क होते बच्चे बहुत नाजुक मोड़ से गुजरते हैं । आज कल के युग में घर में सारे सुख सुविधा के साधन मौजूद हैं । नेट और टीवी के माध्यम से अच्छा बुरा सभी सुलभ है । नौकर के लिए भी बच्चे एक सॉफ्ट टारगेट होते हैं और जब वह आश्वस्त होता है कि उस पर भरोसा बहुत है और कितना भी वह वफादार क्यों न हो ,जब वह माहौल में रंगीनियां देखता है तब उसका भी बहकना स्वाभाविक ही है । 

बचपन से ले कर व्यस्क होने तक ही बच्चे को सबसे अधिक आवश्यकता होती है माँ बाप की । ऐसे में उसे नौकर के सहारे छोड़ देना एक आत्मघाती कदम ही है । यह बात लड़के और लड़की दोनों के लिए सामान रूप से लागू होती है । बच्चे को साइकिल सिखाने के लिए उसे ऐसी साइकिल दिलाई जाती है जिसके दोनों ओर दो छोटे छोटे पहिये उसका संतुलन बनाये रखने के लिए लगे होते हैं । जब बच्चे को संतुलन बनाना आ जाता है और हम उसे चलाते हुए देख आश्वस्त हो जाते हैं कि अब उसके अगल बगल के पहिये जमीन नहीं छू रहे हैं तब ही उसे निकलवाया  जाता है । बिलकुल ऐसे ही परवरिश की जानी चाहिए बच्चों की । जब तक हम आश्वस्त न हो जाएँ कि उन्हें अच्छे बुरे की समझ हो गई है तब तक हमें उनके साथ एक करीबी दोस्त की तरह ही रहना चाहिए और बच्चे में इतना विश्वास उत्पन्न कर दिया जाना चाहिए माँ बाप के प्रति कि वह उनसे कोई भी बात बिना हिचक के कह सके । 

बच्चों के संग समय बिताने से बहुत सी उलझने यूं ही सुलझ जाती हैं ।थोड़ा समय देने से अगर माँ बाप के प्रोफेशन में थोड़ी समस्या भी आती है तब भी वरीयता बच्चे को ही मिलनी चाहिए।अगर समय दे पाना सम्भव नहीं है ,फिर बच्चे को जन्म ही नहीं देना चाहिए नहीं तो फिर किसी और आरुषि को उसके माँ बाप जीने नहीं देंगे और हम लोग बस एक शब्द कह कर रह जायेंगे 'दुर्भाग्यपूर्ण' और कोसते रहेंगे पाश्चात्य सभ्यता को । 

इस घटना की सच्चाई क्या है ,पता नहीं परन्तु इतना तो अवश्य सत्य है कि आरुषि के माँ बाप भी घटना के बाद से घोर पीड़ा में ही होंगे ।  

शनिवार, 23 नवंबर 2013

" मैगी कल्चर………"


पुराने समय में भूख लगने पर तुरत फुरत में लोग सत्तू को पानी के साथ मिला कर खा लिया करते थे । मीठा और नमकीन दोनों ही तरह से सत्तू आम /मिर्चे के अचार के साथ बहुत स्वादिष्ट और साथ में पौष्टिक भी होता था । फिर भी इसे बनाने में कुछ समय तो लगता था ।

अब छोटे बच्चों को बचपन से ही 'मैगी' खाने को मिल जाती है । यह दो मिनट से भी कम समय में बन जाती है । टी वी में दिखा दिखा कर क्या बच्चे क्या बूढ़े सभी को इसका दीवाना बना दिया है कम्पनी  ने । माओं को भी आराम है झट से बन जो जाती है यह ।

बच्चा बोला ,मम्मी मम्मी भूख लगी ,माँ बोली बस दो मिनट ,और हो गया भूख का इलाज । यहाँ तक तो सब ठीक है परन्तु इस दो मिनट की मैगी ने बड़े होने वाले समाज के मन में सब कुछ बस दो मिनट में तैयार होने की आकांक्षा पैदा कर दी । यह बहुत दुर्भागयपूर्ण है । आज समाज में सभी के मन में सब कुछ बस तुरत फुरत में हासिल करने की लालसा व्याप्त है । इसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार हैं चाहे वह लड़के हों या लडकियां । इसी लालसा को पूरा करने के चक्कर में वे ताकतवर लोगों के हाथों अपना शोषण करा बैठते हैं ।

'शार्ट कट' / 'मैगी कल्चर' के चक्कर में ही वर्तमान समाज में  महिलाओं के शोषण की घटनाएं घटती हैं चाहे वह घटना 'ला इंटर्न' की हो , चिकित्सा क्षेत्र में 'एम एस' पास करने की हो , 'पी एच डी' पूरी करने की हो , विदेश के उच्च संस्थान में 'रिकमेंडेशन' कराने की हो , पत्रकारिता के क्षेत्र में हो या निजी कंपनियों में आउट ऑफ़ टर्न प्रोमोशन की हो । धन , वैभव ,यश ,कीर्ति सब पाने में कठोर श्रम ,लगन और समय की आवश्यकता होती है ।

बड़े होते युवक तुरंत हाथों में लेटेस्ट मोबाइल , लेटेस्ट बाइक और आठ दस क्रेडिट कार्ड जेब में रख घूमना चाहते हैं । उनके पास इसे अपने बूते हासिल करने के लिए समय नहीं है । उन्हें तो लत 'मैगी कल्चर' की पड़ गई है । जिसे पूरा करने के लिए वह बड़े से बड़ा अपराध कर डालते हैं और बंगलौर जैसी एटीएम की घटनाएं घट जाती हैं ।

इस 'मैगी कल्चर' को प्रोत्साहन देने का काम 'ई एम आई कल्चर' ने बखूबी किया है । महंगे से महंगा सामान कार /बाइक / मकान 'लोन' ले कर ले लिया ,जब किश्ते न चुका पाये तो अपराध की दुनिया में कदम पड़ जाते हैं । महिलाओं से 'चेन स्नैचिंग' की घटनाओ में पकड़े गए अनेक युवकों ने कबूल किया है कि वे यह काम अपनी 'गर्ल फ्रेंड' को 'गिफ्ट' देने या 'बाइक' की 'ई एम आई' भरने के लिए करते हैं और अमूमन ये युवक अच्छे घरों से पाये गए हैं । दूसरों के खातों से 'अकाउंट हैक' कर पैसा उड़ा लेने वाले पकड़े गए युवक तो काफी पढ़े लिखे और कम्प्यूटर के विशेषज्ञ पाये गए । आसान पैसा बनाने का एक और तरीका इन अच्छे युवकों ने निकाला है ( जो स्वयं पढ़ाई में बहुत होनहार है) ,यह लोग प्रतियोगी परीक्षाओं में दूसरे बच्चों के स्थान पर परीक्षा देते हैं , जिसके बदले इन्हे मोटी रकम मिल जाती है और पकड़े जाने पर जेल जाते हैं और अच्छा खासा अपना बना बनाया भविष्य बिगाड़ लेते हैं । इनके विषय में जानकार सहानुभूति भी होती है ।

बचपन से बच्चों के मन में यह तथ्य स्थापित किया जाना आवश्यक है कि बगैर कठोर श्रम किये कुछ भी पा लेना आसान नहीं होता । समाज में पनप रहे इस 'मैगी कल्चर' से निजात पाना बहुत आवश्यक है । 

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

" स्माइलीज़ और उनके एक्स रे........... "


'स्माइलीज़' आकृतियों का वह पिटारा है जिसमे मानव स्वभाव के सभी मनोदशाओं को मात्र एक छोटी सी आकृति से प्रदर्शित किये जाने के सभी प्रकार की आकृतियां उपलब्ध हैं । मित्रों और प्रेमी प्रेमिकाओं में पत्रों और लघु संवादों के आदान प्रदान में सदैव से मनुष्य के चेहरे को कार्टून बना कर उपहास / परिहास किया जाने का चलन रहा है ।

'फेसबुक' पर संवाद / टिप्पणी में अल्प शब्दों में अधिक से अधिक बातें कह देने के उद्देश्य से इसका प्रयोग अचानक बहुत बढ़ गया और भिन्न भिन्न प्रकार के मनोभावों को दर्शाने के लिए अनेक प्रकार के 'स्माइलीज़' का जन्म होता गया ।

आश्चर्य होता है कि सच में इतने मनोभाव होते भी हैं कि नहीं । फिर अपना 'मूड' जानकार उससे मिलती जुलती 'स्माइलीज़' लगाना भी कठिन लगता है । 'स्माइलीज़' से जिन मनोभावों का प्रदर्शन होता है ,वह सारे ऐसे भाव हैं कि जिन्हे दूसरों के चेहरे पर पढ़ना ज्यादा सरल होता है ।

कहीं चश्मा लगा कर , कहीं आँख दबाकर , कहीं जीभ निकाल कर ,कहीं डेविल ,कहीं एन्जिल , कहीं 'किस', कहीं दिल ,इतने सारे प्रेम चिन्ह बना लिए हैं कि उनका वर्णन करना मुश्किल है । चतुर लोग 'स्माइलीज़' का जवाब 'स्माइलीज़' से ही दे लेते हैं या फिर शायद उन्हें अपनी बात कहना नहीं आता ।

यहाँ तक तो सब ठीक है पर असली समस्या तब आती है जब किसी ने 'स्माइली' बनाने का प्रयत्न किया और 'स्माइली' नहीं बन पाई । ऐसे में 'स्माइली' के स्थान पर जो आड़ी, तिरछी, वक्रीय रेखाएं बन जाती हैं वह उस 'स्माइली' का 'एक्स रे' लगती हैं जिसमें उस 'स्माइली' के जिस्म की हड्डियां दिखाई पड़ने लग जाती हैं और जिस आशय से उसे बनाया जाता है उसकी पूर्ति फिर नहीं हो पाती । यह अपूर्ण / अधूरी 'स्माइलीज़' मक्के के उन दानो जैसी लगती हैं जो 'पोपकोर्न' खाते समय कभी कभी हाथ लग जाती हैं जिन्हे हम 'टुर्रा' कहते हैं ।

हंसी-मजाक के संवाद में तो इनका प्रयोग उचित है पर संजीदा बातों में इनके प्रयोग से बचना चाहिए । यह चिड़िया / तोता / मछली बच्चों के संवाद तक ही सीमित रहे तभी बेहतर है । 'फेसबुक' पर टिप्पणियों में इन्हे सजाने से खूबसूरती तो बढ़ती है पर 'अर्थ' अपना 'अर्थ' कहीं खो बैठते हैं ।


                                                                       ....... और मुझे 'स्माइली' बनाना नहीं आता  । 

('ब्लॉग पोस्ट' पर टिप्पणियोँ  में 'स्माइलीज़' बनाने पर 'स्माइली' तो बनती नहीं ,उसका 'अस्थि पंजर' सा बन जाता है । अब उस 'अस्थि पंजर' की शक्ल किसी परिचित 'स्माइली' से मिला कर सोचो तब समझ आता है 'टिप्पणीकार' कौन सा मनोभाव दर्शाना चाहता है । )

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

"चौदह नवम्बर ……… "



बच्चे सारे ,
सबसे न्यारे ,
लगते आँखों को प्यारे ,

हंस दें ये जब ,
खिल जाये फूल सब ,
सब फूलों से प्यारे बच्चे ,

बोली तोतली  ,
टूटी फूटी ,
पड़ जाए जो कानो में ,

नयन भरे बस हँस दे मन ,
हों जाएँ न्योछावर सब ,
अपने इन लालों पे ,

हो उम्र ,
बचपन की बड़ी ,
तभी जवानी भायेगी ,

क्लेश मिटेगा ,
दुनिया का ,
खुशहाली छा जाएगी ।

शनिवार, 9 नवंबर 2013

"ज़िन्दगी दो कश की………… "


कालेज पहुँचने के बाद जब इत्मीनान यह होना शुरू हुआ कि यहाँ की बात तो यहीं रह जाने वाली है और जो कुछ निजता मेरी है वह पूरी तरह से मेरी ही है । तब सबसे पहले तलब सिगरेट पीने की ही हुई थी । सिगरेट ने हमेशा से मेरी तरह ही सभी युवा होते बच्चों को लुभाया है । कुछ नया करने की चाहत में सबसे पहले हाथों में सिगरेट ही आती है । पहले एक संकोच सा होता है पर शुरू में इससे आत्मविश्वास बहुत बढ़ता हुआ सा 'लगता' है ।

सिगरेट की डिब्बी हाथ में लेकर उसके ऊपर की झिल्ली हटा कर डिब्बी का मुंह खोल जब दो बार ठक ठक करने पर एक सिगरेट उछल कर ऊपर आ जाती थी तब मजा ही कुछ और आता था । फिर सिगरेट को होंठों के बीच फंसा कर दुकान पर लटकती सुलगती सुतली से उसे सुलगाना और आँखे मीचते कुर्ते की जेब से अंदर ही अंदर टटोल कर दुकानदार को चिल्लर दे टहलते हुए हर सम्भव स्टाइल से सिगरेट पीने की कवायद करते हुए हॉस्टल तक पहुँच जाना आज भी साफ़ साफ़ याद है ।                                        

सिगरेट पीने का अंदाज़ ,जिसमें बस थोड़ा सा मुंह खोल कर धुँए का बादल सा बनाते हैं और जैसे ही वह बादलनुमा धुंआ बाहर जाने लगता है उसे हलके से पूरा का पूरा अंदर समेट लेते हैं, मुझे बहुत भाता था और इसे सीखने में मुझे लगभग एक माह और दस /बारह डिब्बियां लगीं होंगी।

अगला प्रयोग छल्लों का था । सिगरेट के धुएं से छल्ला बनाना भी बहुत संयम और धैर्य का काम था । 'करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान' को सही सिद्ध करते हुए हमने महारथ छल्ले बनाने में भी हासिल कर ही ली थी । हास्टल में कमरे के सामने रेलिंग पर बैठ कर अकेले जब सिगरेट सुलगती थी तब जलती सिगरेट निहारते खुद को दुनिया का सबसे बड़ा दार्शनिक समझते थे । घुप्प अँधेरे में कश खींचने पर जब सिगरेट का छोर आग से लाल हो चमक उठता था और 'चमक' आड़ी तिरछी गोल गोल घूमती हुई जैसे अपने अंदाज़ में मुस्कराते ,तेजी से होंठों की ओर बढ़ती थी तब खुद को उस क्षणिक मुस्कराहट के आगोश में लिपटा हुआ पा सुकून सा महसूस करते थे । (पर यह सिलसिला बस कालेज तक ही सीमित रहा ,क्योंकि दुनिया के बताये हुए 'सही' और 'गलत' के बीच द्वन्द करते अधिकतर हमने 'सही' का ही साथ रखा ) 

सुलगती सिगरेट और ज़िन्दगी का फलसफा एक सा है । नयापन होने पर दोनों अच्छी लगती हैं । दोनों ही समय के साथ सुलगती जाती हैं । साफ़ मालूम है कि ख़त्म दोनों होनी है फिर भी आखिरी कश तक उसे भीतर तक उतार लेने को जी करता है । 'चमक' जो दिखती है वह बस देखने में अच्छी होती है नहीं तो हवा मिलने पर 'भभक' दोनों ही जाती हैं ।

"ज़िन्दगी के कश तो तय होते हैं । इत्मीनान से कश का लुत्फ़ लिया जाय तो कश के बाद भी ज़िन्दगी का ज़िक्र होता रहता है ,नहीं तो कौन फ़िक्र करता है ज़िन्दगी के बाद । शायद यही फलसफा है 'दो कश की ज़िन्दगी' का "। 


बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

"सॉरी "..........!!


'सॉरी' शब्द केवल एक शब्द नहीं अपितु अपने में एक सम्पूर्ण कथन हैं । यह शब्द किस भाषा का है ,यह अब महत्वहीन है ,क्योंकि यह शब्द नहीं एक 'सन्देश' है ,एक 'भावना' है ,एक 'भंगिमा' है और कभी कभी सूखे 'आंसू' हैं ।

यूँ तो प्रायः जब कोई गलती अनजाने में हो जाती है तब स्वमेव मुंह से 'सॉरी' निकल जाता है । यह छोटी छोटी बातों पर होता है ,जैसे भीड़ में किसी को पाँव लग जाए ,या किसी को आपके सामान से असुविधा हो जाए ,या आपके किसी अनजाने कृत्य से असुविधा हो जाये तब अचानक मुंह से सॉरी निकल जाता है । यह स्थिति तब की है जब अनजान दो लोगों के बीच कोई असहज स्थिति उत्पन हुई हो | परन्तु जब दो परस्पर 'निकट' के बीच अचानक स्थिति असहज हो जाती है,चाहे वह किसी के कृत्य से हुई हो या संवाद से ,ऐसे में कोई अपनी गलती सहजता से मानने को तैयार नहीं होता । ऐसी स्थिति में यह एक छोटा सा शब्द न बोले जाने के कारण स्थिति बहुत खराब हो जाती है ।

कभी कभी 'सॉरी' बोलने में बहुत समय लग जाता है ,परन्तु जितनी शीघ्र इसे कह दिया जाये नुकसान उतना कम होता है । प्रायः लोग 'सॉरी' कहने में संकोच और लघुता अनुभव करते हैं जब कि 'सॉरी' कहने वाला ही सबसे श्रेष्ठ होता है ।

बिना गलती किये और किसी और की गलती स्पष्ट रूप से दिखने पर भी 'सॉरी' बोलने वाला महानतम होता है और ऐसा वह इसलिए करता है क्योंकि वह उस असहज स्थिति से तुरंत निकलना चाहता है और उस दूसरे व्यक्ति को इतना स्नेह करता है कि उसे भावनात्मक रूप से दुखी नहीं करना चाहता ।

अपनी गलती मान लेना या अपनी गलती न होते हुए भी 'सॉरी' कहना आसान तो नहीं परन्तु जो भी ऐसा कर लेता है वह एक साथ कई दिलों को दुखी होने से बचा लेता है ।

इस पर लोगों के तर्क मिलते हैं कि अपनी गलती न होने पर नहीं मानना चाहिए ,बिलकुल उचित बात है यह । परन्तु विवाद की स्थिति में किसी सम्बन्ध को खोने से अच्छा अपनी गलती न होते हुए भी सामने वाले को ही सही ठहरा देना चाहिए । समय के साथ सारी स्थिति स्पष्ट हो जाती है और निश्चित तौर पर जो व्यक्ति गलत है ,अपनी त्रुटि का एहसास कर ही लेगा ।

जिनका हम सम्मान करते हैं या जिनको हम स्नेह करते हैं उनसे कभी गलती हो भी जाए तो क्या फर्क पड़ता है ,वे मान लें तो मान लें अन्यथा विवाद की स्थिति होने से बेहतर है कि आप ही 'सॉरी' बोलकर स्थिति संभाल लें ।

ऐसा कर के देखें अच्छा लगता है । 'प्यार' में तो यह शब्द संजीवनी बूटी का काम करता है ।कभी कभी यह एक शब्द बोलने में उम्र गुजर जाती है ।  

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2013

" लालटेन सी ज़िन्दगी ......"


जलाता हूँ रोज़ ,
थोड़ा थोड़ा खुद को ,
रोशनी तो होती है ,
पर इर्द गिर्द ,
जमा कालिख भी होती है ,

मन मैला होता है जब ,
मांजता हूँ पोंछता हूँ ,
धीरे से बुझी बाती को बढाता हूँ ,
फिर से जलाने के लिए ,

पहले रोशनी अधिक ,
और कालिख कम थी ,
अब कालिख के आगे ,
रोशनी नम है ,

अब बाती बुझने को है ,
एक दिन भभक कर ,
रोशनी जब होगी खूब ,
ज़िन्दगी फिर तुझे ,
कालिख के नाम कर दूंगा ।

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

" चर्चा रोटी की ........"

                                                                                   ( यह रोटियाँ अर्चना चाव जी की हैं )

इधर कुछ दिनों पहले निवेदिता की तबियत ठीक न थी ,तब मैंने (केवल) एक दिन रोटी बनाने का सफल प्रयास किया । उसी दौरान ,लोई पर लगाए जाने वाले सूखे आटे को 'परेथन' क्यों कहते हैं , यह प्रश्न उत्पन्न हुआ । फेसबुक पर चर्चा के दौरान ज्ञात हुआ ,परेथन का सही शब्द 'परिस्तरण' हैं ।

बात आगे चल निकली ,अर्चना चाव जी ने रोटी को उचित तरीके से फुलाने के विषय में प्रश्न किया । बहुत सारे गणितीय उत्तर प्राप्त हुए ,पर कोई उत्तर उचित नहीं ठहराया गया । रोटी के आकार ,प्रकार ,गोलाई ,मोटाई के बारे में भी चर्चा हुई परन्तु कोई संतोषजनक निष्कर्ष न निकला ।

थोड़ा अनुसंधान फिर मैंने भी किया । रोटी का आकार आटे की लोई पर निर्भर करता है और लोई का आकार बनाने वाले की हथेली पर निर्भर करता है। लोई बस इतनी बड़ी हो कि हथेली के गड्ढे नुमा आकार में बैठ जाए । फिर उसे दोनों हथेलियों के बीच धीरे धीरे गोल गोल घुमाते हुए लोई को 'उड़नतश्तरी' के आकार का बना लें । अब उसके दोनों ओर सूखा आट़ा लगाए । चकले पर उस लोई को धर कर उँगलियों से हौले से दबाएँ । अब बारी आती है बेलन की , बेलन लंबा और पतला होना चाहिए । अगर बेलन की लम्बाई रोटी के व्यास से कम है तब रोटी बेलते समय कहीं मोटी और कहीं पतली हो जायेगी । चकला भी छोटा होने पर रोटी की शक्ल बिगाड़ सकता है । चकला इतना बड़ा हो कि रोटी बेल जाने के बाद भी उसकी परिधि के चारो ओर थोड़ी जगह छूटी हो । रोटी पर बहुत अधिक परेथन नहीं लगा होना चाहिए ,अन्यथा परेथन गर्म तवे के संपर्क में आते ही जल उठता है और रोटी पर काले काले दाग पड़ सकते हैं । तवे पर रोटी डालने के बाद उसे उलटते पलटते रहे ,जब चित्ती सी पड़ जाए तब उसे तवे से उतार कर गैस के बर्नर पर धीरे से सेंके । देखते ही देखते रोटी फूल कर कुप्पा हो जायेगी । जल्दी जल्दी 'दस्तपनाह' से उसे अलट पलट कर गुब्बारा ऐसा फुला लें और फिर उसे कैसेरौल में एल्युमीनियम फॉयल लगा कर रखते जाएँ । बन गई फूली फूली रोटी ।

इसमें कोई गणित ,कोई विज्ञान काम नहीं करता । बस बनाने वाले का मन होना चाहिए ,रोटियाँ बनाने का । अगर बनाने वाले ने रोटियाँ बनाते समय मुंह फुला लिया तब उस दशा में रोटियां नहीं फूलेंगी अर्थात या तो मुंह फूलेगा या रोटियाँ ।

गरीब आदमी चोकर या 'चूनी' की भी रोटी पाथ लेता है ।  महीन चाला हुआ आटा 'मैदा' कहा जाता है । चावल के आटे की रोटी 'खिरौरा' ,गेंहू की मीठी रोटी 'खबौनी' ,हाथ से पाथी रोटी 'हथपई',भौरी या उपलों की आग में पकाई रोटी 'लिट्टी','बाटी','भभरी' या 'मधुकरी' कही जाती है । घी या तेल में पकाई 'पूड़ी' ,'पूरी' ,'लचुई' या 'सोहारी' कहलाती है ।  ,बहुत मामूली घी में पकाई रोटी 'पराठा' ,'परोठा' या 'पल्टा' कहलाता है । दाल अगर अन्दर भर दी जाए तब उस को , 'दलही' या 'बेनिया' कहते हैं । पानी लगे हाथ से बिना परेथन या खुश्की के बनाई गई रोटी 'पनपथी' या 'चंदिया' कहलाती है । बेलकर तैयार की गई पतली रोटी 'फुलका' ,बिना बेले तैयार की गई पतली रोटी 'चपाती' कहलाती है । पकी रोटी को तोड़कर उसे घी में भून कर 'चूरमा' बनाते हैं ।

इस सब के अतिरिक्त मुझे तो एक समय की बासी रोटी को दूध में मसल कर खाने में बहुत आनंद और स्वाद मिलता है । 

शनिवार, 28 सितंबर 2013

" सोचता हूँ तो अच्छा लगता है......."

अभिषेक / रमन ,

आज तुम्हारा जन्मदिन है । इस दिन हम लोग दुबारा पापा-मम्मी बने थे । बहुत खुश थे हम लोग उस दिन और तब से आज तक तुमने खुशियाँ ही खुशियाँ हम लोगों को दी हैं । ईश्वर बस ऐसे ही आशीर्वाद बनाए रखें और तुम्हारा लक्ष्य अभीष्ट होता रहे ।

इस पोस्ट के लिए तुम्हारी बचपन की फोटो ढूंढ रहा था आज ,पर मजे की बात तुम्हारी कोई फोटो अकेले की है ही नहीं । सब फोटो अनिमेष / राजन के साथ की हैं । कारण ,तुम उसके बाद आये न हम लोगों के पास ,बस उसके बाद तो तुमने सब कुछ उसके संग ही किया ।









बस यूँ ही हमेशा दूसरों की खुशियों का कारण बनते रहना  ,जन्म दिन बहुत बहुत मुबारक तुम्हे ।

-पापा /मम्मी 

सोमवार, 16 सितंबर 2013

" सरकारी केचुए ........"


आज क्यारी में यूँ ही खुरपी लेकर कुछ घास निकाल रहा था । अचानक से एक केचुआ वही दिख गया । बहुत देर तक उसे और उसकी क्रियाओं को गौर से देखने के बाद सहसा मुझे आभास हुआ कि वह केचुआ तो एक सरकारी अफसर की भाँति काम कर रहा था ।

वह केचुआ बड़ी तन्मयता से धीरे धीरे अपने काम में लगा था । उसकी गति को देख कर उस पर तरस भी आ रहा था और क्रोध भी । ईश्वर ने भला उसे गति क्यों नहीं दी । इतने ज़रा से काम को करने में इतना समय लेने का क्या औचित्य ! काम करते करते अचानक वह कुंडली मार कर रुक गया तो मैंने उसे हाथ से सीधा किया । वह फिर धीरे धीरे रेंगने लगा । मेरे अनुसार वह गलत दिशा में जा रहा था ,अतः मैंने उसके एक सिरे पर हाथ लगाया तो वह वहां से पीछे की ओर रेंगने लगा । पकड़ने की कोशिश की तो इतना चिकना था कि हाथ से फिसल गया । वह बस एक ही काम में लगा था ,मिटटी को ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर किये जा रहा था । अनवरत बस यही काम और कुछ नहीं । बहुत प्रयासों के बाद भी मै यह नहीं पहचान पाया कि उसका मुंह किधर है और पूंछ किधर । लगता था जैसे वह मिटटी ही खाता है और मिटटी ही का उत्सर्जन भी करता है । कभी कभी ऐसा भी लगा भी कि वह आगे बढ़ने का प्रयास तो बहुत कर रहा है ,उसके बदन में हरकत तो बहुत हो रही है पर अपनी जगह से ज़रा भी टस से मस नहीं हो रहा है ।  

मैंने उसे पलट कर देखने की कोशिश की तो भी समझ नहीं आया कि उसका पेट किस ओर है और पीठ किस ओर । उँगलियों से उसे ज़रा सा धक्का दिया तो दूर जा गिरा परन्तु बिना कुछ बोले ,बिना कोई क्रोध दिखाए फिर अपने काम में लग गया उसी मंथर गति से । उसे कितना भी परेशान किया तब भी उसने न काटा ,न भौंका और न ही पलट कर देखा ,बस करता रहा धीरे धीरे मिटटी की उलट पलट ।

कहते हैं इसी उलट पलट से वह केचुआ खेत को उर्वर बनाता है और उससे पैदावार बढ़ जाती है । 

बस ऐसे ही होते हैं सरकारी अफसर । न पेट का पता ,न पीठ का । अति व्यस्त दिखना इनका शगल ,दिन भरे चलते अढाई कोस और फाइलों को ऊपर नीचे कर अपने दफ्तर को उर्वर बनाते रहते हैं

कहते हैं केचुओं को अगर बंजर जमीन में डाल दिया जाये तो वे वहां भी उलट पलट कर उस जमीन  को उर्वर बना कर उसमें भी कुछ न कुछ पैदा करा ही देते हैं । ऐसे ही कुछ अफसर भी अपनी इस 'केचुआ टाइप' कार्यशैली में  इतने सिद्ध हस्त होते हैं कि उन्हें कहीं भी किसी भी जगह तैनात कर दिया जाये ,तब भी वे वहां फाइलों को इतना ऊपर नीचे कर डालते हैं कि वह दफ्तर जो पहले कभी घोर बंजर रहा हो ,वह भी उर्वर हो जाता है और उस दफ्तर में भी जबरदस्त पैदावार होने लगती है । ऐसे अफसर बहुत तेज़ तर्रार और गट्स वाले कहलाते हैं ।

परन्तु मुझे तो ये अफसर सरकारी केचुए नज़र आते हैं । 

शनिवार, 14 सितंबर 2013

" रेयरेस्ट ऑफ द रेयर.........."


तलब लगी ,
जब कभी उनकी ,
भर जी निहारा किये ,

अफ़सोस ,
इल्म न करा पाए ,
मोहब्बत का अपनी,

पर एहसास ,
तो एहसास है ,
एक दिन होना ही था ,

अचानक उस शाम यूँ ही ,
अक्स सा उभरा उनका ,
खिड़की पर जब ,

लगा सरेशाम ,
चाँद सा ,
उग आया हो कोई  ,

काली जुल्फें ,
संवारती थी  ,
गोरी खनकती कलाईयाँ

नज़रें मिली  ,
जब उनकी ,
कंघी की ओट से ,

लगा कंघी में ,
अरझे हों जैसे ,
जुगनू कई , 

होंठों में बुदबुदाया मै ,
'रेयरेस्ट ऑफ द रेयर' 
वाकया है यह तो ,

फिर तो 'मृत्यु दंड' 
तुम्हारी निगाहों के लिए ,
आवाज़ उधर से आई  ,

और वो खिड़की ,
बंद हो गई ,
सदा के लिए '

शायद वह भी थे सजा-याफ्ता  'उम्रकैद' की । 


बुधवार, 4 सितंबर 2013

"शीर्षक कैसा हो......."


'शीर्षक' लिखना लेखक के लिए एक बड़ी चुनौती होता है । पहले विचार आते हैं फिर उस विचार को विस्तार और आयाम देकर लेख / कहानी का स्वरूप बनता है । ऐसे में मन में सदा एक 'पात्र' ,'घटना' या 'कथन' बार बार उछल उछल कर सामने आता रहता है बस उसी से जन्म होता है 'शीर्षक' का । 'शीर्षक' लेख के 'सेंटर ऑफ़ मॉस' की तरह होना चाहिए कि अगर उस लेख / कहानी को 'शीर्षक' के सहारे उठा कर टांग दिया जाए तब लेख / कहानी पूरी तरह से संतुलित ही रहे ।

कुछ सिद्धहस्त लेखक पहले पूरा घटनाक्रम लिख डालते हैं फिर उससे सामंजस्य स्थापित करते हुए 'शीर्षक' को जन्म देते हैं ,परन्तु बाद में 'शीर्षक' देना तनिक मुश्किल होता है ।

'शीर्षक' पहले से तय करने के पश्चात लेख / कहानी लिखते समय उसका ताना बाना उस 'शीर्षक' के इर्द गिर्द बुनता जाता है ,जैसे मकड़ी अपने शिकार को पकड़ते ही उसके चारों ओर बड़ी तेजी से अपना जाल बिछा देती है और उसका शिकार उसकी गिरफ्त से छूट नहीं पाता। 'शीर्षक' जितना सुरक्षित होता है ,लेख पर उसका असर उतना ही अधिक गहरा होता है । 'शीर्षक' एक बड़ी सी 'शिरोरेखा' ही है जिस पर उस 'लेख' के सभी शब्द टंगे होते हैं ।

'शीर्षक' तो इत्र की शीशी के ढक्कन की तरह होना चाहिए कि ज़रा सा खोला नहीं कि पूरा माहौल महक से वाकिफ हो जाए । कुछ 'शीर्षक' ऐसे होते हैं जिनका विषय से कोई लेना देना नहीं होता । इन्हें लेखक केवल आकर्षण हेतु लिख देते हैं परन्तु दो चार पन्ने पढ़ते ही समझ आ जाता है कि 'शीर्षक' का लेख से उतना ही कम सम्बन्ध है जितना कथाकार का कथानक से । लेखक जितना अधिक अपनी कहानी की वास्तविकता से जुड़ा होगा उसका 'शीर्षक' उतना ही अधिक प्रभावशाली होगा ।

लेख / कहानी से भिन्न "कविता" का शीर्षक 'विंड चाइम' की डोरी की तरह होना चाहिए जिसके सहारे पूरी "कविता" लटक कर हवा में लहराती रहे और मधुर संगीत उत्पन्न करती रहे । 

अब के कुछ लेखक / लेखिका , कवि  / कवियत्री ऐसे भी हैं जो लेखन के प्रारम्भ में 'शीर्षक' तय तो कर लेते हैं परन्तु प्रकाशन से पहले ही कथानक का रहस्य खुल न जाए अथवा उस 'शीर्षक' का अन्य लेखों में दुरूपयोग न हो जाए इस भय से उस 'शीर्षक' का खुलासा नहीं करते । 

'शीर्षक' तो लेखक / कवि का अपने लेख / कविता के लिए एक घूँघट की तरह होता है जो उसे पूरी तरह ढके तो रहता है परन्तु पैनी नज़र वालों से अपना रहस्य उद्घाटित भी कराता रहता है । 

सोमवार, 2 सितंबर 2013

" आश्रमों के पीछे का सच ....."



इतना अच्छा बोलता था टी वी पर , कितना चमकदार और रोबदार चेहरा ,कितनी ज्ञान की बातें और अब ऐसे आरोपों से घिरा हुआ। सच क्या है , ऐसा क्यों होता है ,क्या हैं ये 'आसाराम' सरीखे बाबा !! आम आदमी के मन का बड़ा सरल सा प्रश्न ।

ईश्वर में आस्था और भक्ति होने के साथ अनजाने में ही लोग चमत्कार की कल्पना और उसमें सहज विश्वास करने लगते हैं । बचपन से ही बड़ों का आदर, गुरुओं और सन्यासियों का सम्मान और उनसे आशीर्वाद लेने का उपक्रम करते करते कब मन में इन चमत्कारी बाबाओं के प्रति अगाध श्रद्धा की बात घर कर जाती है ,भान ही नहीं रहता । ऐसे में साथ में रहने वाले हमारे बड़े लोग अगर सतर्क न हो और स्वयं भी ऐसे लोगों में अगाध आस्था और विश्वास करते हो तब उनके आस पास के लोगों में ऐसी ही धारणा पनपना निश्चित है ।

जीवन में सदैव आशा और निराशा का एक साथ ही वास होता है । कोई कितना भी सक्षम क्यों न हो ,उसकी भी कोई न कोई अभिलाषा अपूर्ण ही रहती है । ऐसे में अचानक से कहीं कोई आशीर्वाद के रूप में चमत्कार होने की बात प्रबल कर दे तब उसका भटकना तय है । घर घर भिक्षा मांगने वाले भी इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि महिलाओं को उनके बच्चों की सफलता के नाम पर कुछ भी माँग कर उसे प्राप्त कर लेना सबसे आसान काम है । जो भरे पूरे हैं उन्हें उसे बचाए रखने की चिंता और जो आधे अधूरे हैं उन्हें उसे पूरा करने की चिंता ही ,किसी भी भाँति , इन साधुओं की ओर खींचती है ।  

किसी भी प्रवचन में कोई ऐसी बातें नहीं होती जो किसी को ज्ञात न हो । ऐसे किसी भी आयोजनों में वहां का वातावरण इतना सुगन्धित ,सुसज्जित , शांत और मनमोहक होता है और वही व्यक्ति के चित्त पर गहरा असर करता है और व्यक्ति को सोचने पर मजबूर कर देता है कि वहां कुछ तो विशेष है । उस पर से वहां बोलने वाले बाबा की सादगी , भाषा , संगीत और चंद बड़े लोग कुल मिला कर आग में घी का काम करते हैं । भीड़ भाड़ देख कर आम लोग स्वतः आश्वस्त हो जाते हैं ,वहां की सत्यता के प्रति , जबकि होता ऐसा कुछ भी नहीं है । सुगन्धित पदार्थों का प्रयोग , धूप ,अगरबत्ती ,मधुर भजन ,सुन्दर महंगे साज सज्जा की सजावट  ,कहीं भी कर दी जाय तब ऐसा ही प्रभाव हो सकता है ।

ईश्वर में आस्था रखना और किसी अन्य के द्वारा चमत्कार करने की क्षमता में विश्वास करना दो अलग अलग परन्तु बहुत सूक्ष्म अंतर की बातें है । समझना होगा कि सभी अन्य व्यक्ति भी आम जन की तरह ही हैं ,किसी ,साधू ,सन्यासी ,बाबा को यह शक्ति हासिल नहीं है कि वह आपके लिए कुछ कर देगा । अपनी पूजा स्वयं ,करें ईश्वर में आस्था रखे ,उससे आपको संबल मिलेगा और आपके ही कर्म से समस्या का निवारण होगा । यह बात अवश्य सत्य है कि पूजा पाठ से मन , चित्त और घर सुगन्धित और शांत हो जाता है ,जिसे 'अरोमाथिरेपी' कह सकते हैं । यह बाबा लोग बस इसी 'थिरेपी' के सहारे लोगों का विश्वास हासिल करते हैं जो धीरे धीरे अंधविश्वास बन जाता है ।

इस तरह की घटनाएं ( महिलाओं के शोषण की ) स्वयं सिद्ध करती हैं कि ऐसे बाबा साधारण मनुष्य ही हैं ,परन्तु चूंकि समय बीतने के साथ उनका कद इस कदर बढ़ चुका होता है कि भुगतने के बाद भी वह मुंह खोलने का साहस नहीं जुटा पाती और इसी चुप्पी का लाभ लेकर वह बाबा अपना आश्रम ऐसे लोगों से सजाता रहता है । ऐसी जगहों पर नामी -गिरामी लोगों के आने जाने से साधारण व्यक्ति इतना सहमा हुआ होता है कि उसके पास विश्वास करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं होता । उदाहरण के तौर पर साईँ बाबा के भक्त 'कलाम साहब' भी रहे और 'सचिन तेंदुलकर' भी , जबकि साईं बाबा भी आसाराम से कम धूर्त नहीं थे ,अब कलाम साहब और सचिन की योग्यता पर तो किसी को कोई संदेह नहीं है ,न ही मुझे है पर आम लोग यह नहीं जानते कि सचिन और कलाम साहब ने उन पर अंध विश्वास कर अपने कर्मों से समझौता कभी नहीं किया । परन्तु इतने बड़े व्यक्तित्व का उनके यहाँ आना जाना देख कर जाहिर है आम आदमी तो अंध भक्त हो ही जाएगा । अतः ऐसे बड़े लोगों का भी दायित्व है कि ऐसी झूठ मान्यताओं को उन्हें बढ़ावा नहीं देना चाहिए । 

यह साधू ,सन्यासी, बाबा अकेले रहते है और चूंकि साधारण मनुष्य ही हैं तब उनमें भी आम लोगों की तरह सभी आवश्यकताओं का जन्म लेना साधारण सी बात है । वह कोई परमहंस नहीं कि उन पर महिलाओं और लड़कियों की संगत का प्रकृति-जन्य असर नहीं होगा और तभी फिर ऐसी घटनाएं सामने आती हैं ।

ऐसी घटनाओं बहुत होती हैं और उजागर तभी हो पाती हैं तब कभी कभार किसी की आत्मा कचोट उठती है ,अन्यथा अनेक बाबा इसकी आड़ में खूब फूलते फलते रहते हैं । इस दिशा में मीडिया ने भी ख़ास कर 'टी वी' ने भी ऐसे चमत्कारी बाबों को बहुत प्रोमोट किया है । आम आदमी अपनी महत्वाकांक्षा पूरा करने चक्कर में इन सब में ऐसा उलझता है कि बस उसके हाथ चंद मालाएं , ताबीज , अंगूठी , कीमती परन्तु बेजान पत्थर और ऐसे आश्रमों के चक्कर ही आते हैं । सब कुछ लुट जाने के बाद वह लाज के भय से किसी से कुछ कह भी नहीं पाता । 

इन आश्रमों में प्रवचन ने एक उद्दोग का रूप ले लिया है ।लाखों करोड़ों का टर्न ओवर है । यह आश्रम बड़े घरानों के ब्लैक मनी को व्हाईट करने का काम बखूबी करते हैं । इस पर एक बार स्टिंग ऑपरेशन भी हो चुका है परन्तु सब बड़े लोग आपस में मिले हुए हैं । किसी का कुछ नहीं होना, बस आम आदमी यूं ही बेवकूफ बन कर इन आश्रमों के उद्दोग का 'रा मटीरियल' बनता रहता है     

बहुत सरल सी बात है ,पूजा पाठ , ईश्वर का ध्यान , यह सब सब स्वयं करने से ही मन को शान्ति मिल सकती है और फिर इसी शांत मन की ऊर्जा से बड़े से बड़े मनोरथ सिद्ध हो सकते हैं । इस काम के लिए कोई अन्य व्यक्ति कितना बड़ा भी सिद्ध ( ढोंगी ) क्यों न हो ,आपकी सहायता नहीं कर सकता ।

जब तक हम इन बातों को नहीं समझेंगे , उँगलियों में रत्न पहनना नहीं छोड़ेंगे , धूर्त पाखंडियों से शंख बजवाते रहेंगे , इन लाल होते बाबाओं के आश्रमों में जा कर इनके चरण छूते रहेंगे , इनके आचरण ऐसे ही मिलेंगे ।


                                                     ( दिखावे पर मत जाओ अपनी अकल लगाओ  )   

बुधवार, 28 अगस्त 2013

" क्या न लिखूं ..."


'क्या लिखूं' , सोचने से बेहतर है यह सोचा जाए कि 'क्या न लिखूं' ।  

यह बिलकुल भी नहीं लिखूंगा कि रुपये के अवमूल्यन का कारण गलत आर्थिक नीतियाँ है । अंतर्राष्ट्रीय बाजार में हमारे उत्पादों का रेंज भी कम है और जो हैं भी उनकी गुणवत्ता भी मानक अनुसार नहीं है । यह भी नहीं लिखूंगा कि चार हज़ार करोड़ रुपये के लैपटाप बांटने के बजाय कोई उद्योग लगा दिया गया होता तो अधिक लाभकारी होता । जिन्हें सच में आवश्यकता है उन्हें आर्थिक एवं अन्य प्रकार की सहायता अवश्य दी जानी चाहिए परन्तु जितना धन व्यय किया जाना है उसकी भरपाई का इंतजाम पहले कर लेना आवश्यक है । रेवन्यू जेनेरेट नहीं करेंगे तो सरकारी खजाने खाली होते रहेंगे और विश्व बैंक का मुंह ताकते ताकते हम तो औंधे मुंह गिरेंगे ही  हमारा रुपया भी कहीं का नहीं रहेगा । जब तक हम उदारता बरतते रहेंगे ( वह भी उदारता कहाँ है ,वोट बैंक की राजनीति है ) और अपने खजाने को यूं ही लुटाते रहेंगे ,आर्थिक मजबूती नहीं आने वाली ।

एक छोटा सा उदाहरण : दीपावली पर पूरे देश भर में बिजली की झालरों की सजावट की जाती है ।सारे बाज़ार में चीन में निर्मित झालरें ही बिकती हैं और खूब बिकती हैं । अगर यही उद्योग हमारे यहाँ लग जाए तो क्या इस बिक्री का लाभ हमें नहीं मिलेगा।मै अर्थशास्त्री तो नहीं परन्तु इतनी छोटी सी बात तो समझ में आ ही जाती है ।  
यह भी नहीं लिखूंगा कि बहुत ऊंचे स्तर पर जो भी निर्णय लिए जाते हैं वह 'कस्टमाइज्ड' होते हैं अर्थात वह किसी बड़े घराने को या किसी वर्ग विशेष को लाभ पहुचाने के उद्देश्य से लिए जाते हैं , भले ही सरकार की आय को भारी चोट पहुँच जाए ।

यह भी नहीं लिखूंगा कि हमारा देश प्रजातंत्र से चलता है और इसमें सारा श्रेय 'संख्या' को है । जिसकी 'संख्या' ज्यादा ,वह सरकार बनाता है और राज करता है । अब अगर 'संख्या' अनपढ़ों /गंवारों की अधिक है तो स्पष्ट है कि परिणाम क्या होगा । क्या सरकारों को इस पर सोचना नहीं चाहिए , आंकड़े नहीं निकाले जाने चाहिए कि आखिर दिन प्रतिदिन 'संख्या' बढ़ किसकी रही है !

यह भी नहीं लिखूंगा कि समाज में बच्चों का मानसिक विकास इस प्रकार किया जाना चाहिए कि उनके अन्दर लड़कियों और महिलाओं के प्रति सम्मान उत्पन्न हो और किसी भी तरह से यौनिक हिंसा की घटना न होने पाए । ( इससे घृणित और कुछ नहीं हो सकता जो हम आये दिन देखते और सुनते हैं ,मुझे तो पढने में भी शर्म महसूस होती है ) । मेरा एक सुझाव है ,महिलाओं और लड़कियों को बस एक शब्द अंग्रेजी का सदैव कंठस्थ रखना चाहिए ( lest : ऐसा न हो कि ) ,हर परिस्थिति में ऐसी संभावना को अगर याद कर थोड़ा सतर्क रहे तो शत-प्रतिशत ऐसी घटनाओं से बच सकती हैं । वास्तव में लडकियां और महिलाएं कल्पना नहीं कर पाती कि उनके साथ कोई ऐसा भी कर सकता है ,बस इसीलिए दुर्घटना हो जाती है ।

यह भी नहीं लिखूंगा कि लोगों के लिए अब आवश्यक है कि अंधविश्वास छोड़ कर कठिन परिश्रम करें और इस पर विश्वास करें कि किसी भी संकट का हल उनके द्वारा कर्म करके ही निकाला जा सकता है । आसाराम बापुओ के आश्रम में जाने से हल तो नहीं निकलता परन्तु ऐसी घटनाएं अवश्य हो जाती हैं । बच्चों में बचपन से ही ईश्वर में आस्था तो अवश्य उत्पन्न होने दें परन्तु किसी साधू सन्यासी के चमत्कार से उसे सदैव दूर रखें । एक पुरानी कहावत है , "दुआओं से किश्ती नहीं चलती " ।

यह भी नहीं लिखूगा कि जो लोग समाज को बदलने की बात करते हैं उन्हें पहले स्वयं अनुकरणीय कार्य करने होंगे । बिना मतदान किये सरकारों को दोष देने वालों को दंड दिए जाने का प्राविधान होना चाहिए , नहीं तो ऐसे ही नेता चुने जाते रहेंगे और होटलों में गिरफ्तार होते रहेंगे ।

यह भी नहीं लिखूंगा कि उन्नत देश जहां पहुँच गयें हैं और जो हासिल कर चुके हैं हम वैसा अभी सोच भी नहीं पा रहे है । कितना पिछडापन , इतना पिछड़ापन वह भी मानसिक रूप से ।

अंत में यह अवश्य लिखूंगा कि किसी भी निर्णय को लेने से पहले उसके दूरगामी परिणामों के विषय में सोचना अत्यंत आवश्यक है ,छोटे छोटे लक्ष्य बनाकर ,स्वार्थपूर्ति के उद्देश्य से ,हम तरक्की नहीं कर सकते और न ही आत्मनिर्भर हो सकते हैं । 


रविवार, 25 अगस्त 2013

शनिवार, 24 अगस्त 2013

" लगातार घंटी .....अरे जल न जाए .....मुग्धा होगी "


रात को जब कभी भी दस बजे के बाद हमारे घर की काल बेल बजती थी ,वह भी लगातार ,तब निवेदिता कहती थी ,"देखिये मुग्धा होगी , यह लड़की घंटी न जला दे "। पहले हमारे यहाँ काल बेल चिड़िया की आवाज़ वाली थी ,वह घंटी दबाये रखने पर लगातार बजती थी । मुग्धा से घंटी जलने से बचाने के लिए हम लोगों ने उसे बदल कर 'डिंग डाँग' लगवा दी । उसमे एक बार बजाने पर स्विच दबाये रखो, फिर घंटी नहीं बजती । इस पर मुग्धा ने स्विच ही कई बार आन आफ कर 'डिंग डाँग' की भी ऐसी की तैसी कर डाली।गेट से घुसते ही हँसते ,चहकते और पूछते आंटी कहाँ हो ,क्या बना है ,बहुत खुशबू आ रही है ,इतना कहते कहते हमारा पूरा घर उसकी रौनक से भर जाता था और इतनी ही देर में उसकी प्रिय आंटी उसके लिए कुछ न कुछ खास कर मूंग की दाल की कचौड़ी बना डालती थीं । ( मुझे एक अरसे से नहीं मिली खाने को )

वर्ष १९९९ में जब हम लोग लखनऊ ट्रांसफ़र हो कर आये थे तब 'रेलन साहब' के घर में हम लोगों ने किराए पर रहना शुरू किया था । रेलन साहब और मुग्धा की मम्मी दोनों लोग बैंक कर्मी और उनकी दो बेटियाँ मुग्धा और चिंकी ,चारों अपने मकान में ऊपर रहते थे और हम चारों नीचे वाले हिस्से में । चिंकी तो काफी छोटी थी और शांत भी पर मुग्धा तो जैसे उसमें चंचलता कूट कूट कर भरी थी । जब भी सीढियों पर होते हुए ऊपर अपने घर जाती तब नीचे की घंटी बजाकर आंटी का हाल चाल लेना तय था। इनका यह घर हम लोगों के लिए बहुत शुभ साबित हुआ । वहीँ रहते रहते वर्ष २००२  में हम लोगों ने वहीँ पास में अपना एक घर बना लिया और फिर उसी में शिफ्ट कर गए । पर मुग्धा की घंटी के आतंक का प्रकोप कम नहीं हुआ और न ही उसका 'आंटी प्रेम' ।

अब धीरे धीरे मुग्धा का गैंग बड़ा हुआ उसमें चिंकी तो शामिल हुई ही ,उसकी एक बहन और, देहरादून से ,मेघा भी शामिल हो गई । अब तीनो अपनी आंटी के जो फैन हुए फिर क्या कहने । निवेदिता की कचौड़ियाँ तो पूरे 'रेलन परिवार' में 'वर्ल्ड-फेमस' हो गईं ।


 यह वही मुग्धा हैं जिसकी शादी में हम लोग अभी अहमदाबाद गए थे । इसने चार महीने पहले से ही हम लोगों का टिकट वगैरह करवा रखा था । इसी बीच हम लोगों की भाभी की असामयिक मृत्यु हो गई जिससे मन बहुत अशांत और विचलित था । परन्तु मुग्धा का चेहरा और उसका अपनापन याद कर हम दोनों ने शादी में जाने का निर्णय लिया । वहां इसकी गैंग की तीसरी बहन मेघा ( बहुत प्यारी सी बिटिया है यह भी ) के मियाँ जी प्रतीक ने हम लोगों को आधा गुजरात घुमाने का इंतजाम कर दिया ।

मुग्धा जितनी चंचल परन्तु समझदार ,उसे उसका जीवनसाथी भी बहुत हैंडसम और आकर्षक व्यक्तित्व वाला ही मिला । ईश्वर उसकी चंचलता और हंसी यूं ही बनाए रखें उसके गैंग की बाकी दोनों बहने भी अपने अपने जीवन में सुखी और समृद्धिशाली हों ,ऐसी ईश्वर से प्रार्थना है हम लोगों की ।

बस अब हम लोग मुग्धा और उसकी लगातार बजती घंटी दोनों को बहुत मिस करते हैं और शायद सदा करते रहेंगे । मुग्धा , अपनी आंटी को तो बोल दो , मुझे तो कचौड़ियाँ खिला दे एकाध बार ।