मंगलवार, 26 नवंबर 2013

" आरुषि............. "


क्यों और कैसे हो जाता है यह सब । सहसा विश्वास करना सरल नहीं होता कि ऐसी घटनाएं भी हो सकती हैं । सामाजिक और आर्थिक रूप से प्रतिष्ठित परिवार में कहाँ चूक हो गई । आरुषि के माँ बाप भी उसे स्वभाविक रूप से बहुत लाड प्यार से ही पालते  रहे होंगे । किसी भी चीज़ की कमी से कभी उसे अखरने नहीं दिया गया होगा । मुंह से निकला भी न होगा कि 'बार्बी डॉल' से लेकर लेटेस्ट 'प्ले स्टेशन' ,'मोबाईल' ,'आई पॉड' ,'आई पैड' ,'आई फोन' इत्यादि की लाइन लगा देते रहे होंगे । फिर हुआ क्या ,क्या कम पड़ गया परवरिश में । ऐसा क्या था जो आरुषि को उसके माँ बाप नहीं दे पाये । 

बस 'समय' ही नहीं दे पाये आरुषि को उसके माँ बाप । बचपन से जब बच्चा धीरे धीरे बड़ा होता है वह अपने आस पास के लोगों से ही ज्यादा घुलता मिलता है । अगर माँ बाप बच्चे को कम समय देते हैं और नौकर ज्यादा रहता है बच्चे के संग तब बच्चा भी नौकर से ही ज्यादा घुल मिल जाता है । माँ बाप यह देख कर अत्यंत प्रसन्न होते हैं कि नौकर के संग उनका बच्चा बहुत खुश है और वह आराम से अपनी व्यस्तता बरकरार रखते हैं । माँ बाप यह सोच कर आश्वस्त रहते हैं कि बच्चा अभी छोटा है जब बड़ा होगा तब उसे अपने अनुसार समझा कर जैसा चाहेंगे बना लेंगे । बस यहीं गलती हो जाती है । शुरू से ही बच्चे के अवचेतन मस्तिष्क पर यह बात घर करने लगती है कि यह जो माँ बाप हैं इनका काम बस भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करना है और मन की बात साझा करने के लिए नौकर का ही सहारा है । 

प्रायः नौकर इस बात से बहुत खुश होते हैं जब माँ बाप किसी अन्य व्यक्ति से कहते हैं कि उनका बेबी तो उन दोनों की बात नहीं मानता पर नौकर की सब बात मान लेता है और उसके हाथों खाना भी आराम से खा लेता है । यही छोटी छोटी बातें बच्चे को माँ बाप से कोसों दूर करने लग जाती हैं । व्यस्क होते बच्चे बहुत नाजुक मोड़ से गुजरते हैं । आज कल के युग में घर में सारे सुख सुविधा के साधन मौजूद हैं । नेट और टीवी के माध्यम से अच्छा बुरा सभी सुलभ है । नौकर के लिए भी बच्चे एक सॉफ्ट टारगेट होते हैं और जब वह आश्वस्त होता है कि उस पर भरोसा बहुत है और कितना भी वह वफादार क्यों न हो ,जब वह माहौल में रंगीनियां देखता है तब उसका भी बहकना स्वाभाविक ही है । 

बचपन से ले कर व्यस्क होने तक ही बच्चे को सबसे अधिक आवश्यकता होती है माँ बाप की । ऐसे में उसे नौकर के सहारे छोड़ देना एक आत्मघाती कदम ही है । यह बात लड़के और लड़की दोनों के लिए सामान रूप से लागू होती है । बच्चे को साइकिल सिखाने के लिए उसे ऐसी साइकिल दिलाई जाती है जिसके दोनों ओर दो छोटे छोटे पहिये उसका संतुलन बनाये रखने के लिए लगे होते हैं । जब बच्चे को संतुलन बनाना आ जाता है और हम उसे चलाते हुए देख आश्वस्त हो जाते हैं कि अब उसके अगल बगल के पहिये जमीन नहीं छू रहे हैं तब ही उसे निकलवाया  जाता है । बिलकुल ऐसे ही परवरिश की जानी चाहिए बच्चों की । जब तक हम आश्वस्त न हो जाएँ कि उन्हें अच्छे बुरे की समझ हो गई है तब तक हमें उनके साथ एक करीबी दोस्त की तरह ही रहना चाहिए और बच्चे में इतना विश्वास उत्पन्न कर दिया जाना चाहिए माँ बाप के प्रति कि वह उनसे कोई भी बात बिना हिचक के कह सके । 

बच्चों के संग समय बिताने से बहुत सी उलझने यूं ही सुलझ जाती हैं ।थोड़ा समय देने से अगर माँ बाप के प्रोफेशन में थोड़ी समस्या भी आती है तब भी वरीयता बच्चे को ही मिलनी चाहिए।अगर समय दे पाना सम्भव नहीं है ,फिर बच्चे को जन्म ही नहीं देना चाहिए नहीं तो फिर किसी और आरुषि को उसके माँ बाप जीने नहीं देंगे और हम लोग बस एक शब्द कह कर रह जायेंगे 'दुर्भाग्यपूर्ण' और कोसते रहेंगे पाश्चात्य सभ्यता को । 

इस घटना की सच्चाई क्या है ,पता नहीं परन्तु इतना तो अवश्य सत्य है कि आरुषि के माँ बाप भी घटना के बाद से घोर पीड़ा में ही होंगे ।  

शनिवार, 23 नवंबर 2013

" मैगी कल्चर………"


पुराने समय में भूख लगने पर तुरत फुरत में लोग सत्तू को पानी के साथ मिला कर खा लिया करते थे । मीठा और नमकीन दोनों ही तरह से सत्तू आम /मिर्चे के अचार के साथ बहुत स्वादिष्ट और साथ में पौष्टिक भी होता था । फिर भी इसे बनाने में कुछ समय तो लगता था ।

अब छोटे बच्चों को बचपन से ही 'मैगी' खाने को मिल जाती है । यह दो मिनट से भी कम समय में बन जाती है । टी वी में दिखा दिखा कर क्या बच्चे क्या बूढ़े सभी को इसका दीवाना बना दिया है कम्पनी  ने । माओं को भी आराम है झट से बन जो जाती है यह ।

बच्चा बोला ,मम्मी मम्मी भूख लगी ,माँ बोली बस दो मिनट ,और हो गया भूख का इलाज । यहाँ तक तो सब ठीक है परन्तु इस दो मिनट की मैगी ने बड़े होने वाले समाज के मन में सब कुछ बस दो मिनट में तैयार होने की आकांक्षा पैदा कर दी । यह बहुत दुर्भागयपूर्ण है । आज समाज में सभी के मन में सब कुछ बस तुरत फुरत में हासिल करने की लालसा व्याप्त है । इसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार हैं चाहे वह लड़के हों या लडकियां । इसी लालसा को पूरा करने के चक्कर में वे ताकतवर लोगों के हाथों अपना शोषण करा बैठते हैं ।

'शार्ट कट' / 'मैगी कल्चर' के चक्कर में ही वर्तमान समाज में  महिलाओं के शोषण की घटनाएं घटती हैं चाहे वह घटना 'ला इंटर्न' की हो , चिकित्सा क्षेत्र में 'एम एस' पास करने की हो , 'पी एच डी' पूरी करने की हो , विदेश के उच्च संस्थान में 'रिकमेंडेशन' कराने की हो , पत्रकारिता के क्षेत्र में हो या निजी कंपनियों में आउट ऑफ़ टर्न प्रोमोशन की हो । धन , वैभव ,यश ,कीर्ति सब पाने में कठोर श्रम ,लगन और समय की आवश्यकता होती है ।

बड़े होते युवक तुरंत हाथों में लेटेस्ट मोबाइल , लेटेस्ट बाइक और आठ दस क्रेडिट कार्ड जेब में रख घूमना चाहते हैं । उनके पास इसे अपने बूते हासिल करने के लिए समय नहीं है । उन्हें तो लत 'मैगी कल्चर' की पड़ गई है । जिसे पूरा करने के लिए वह बड़े से बड़ा अपराध कर डालते हैं और बंगलौर जैसी एटीएम की घटनाएं घट जाती हैं ।

इस 'मैगी कल्चर' को प्रोत्साहन देने का काम 'ई एम आई कल्चर' ने बखूबी किया है । महंगे से महंगा सामान कार /बाइक / मकान 'लोन' ले कर ले लिया ,जब किश्ते न चुका पाये तो अपराध की दुनिया में कदम पड़ जाते हैं । महिलाओं से 'चेन स्नैचिंग' की घटनाओ में पकड़े गए अनेक युवकों ने कबूल किया है कि वे यह काम अपनी 'गर्ल फ्रेंड' को 'गिफ्ट' देने या 'बाइक' की 'ई एम आई' भरने के लिए करते हैं और अमूमन ये युवक अच्छे घरों से पाये गए हैं । दूसरों के खातों से 'अकाउंट हैक' कर पैसा उड़ा लेने वाले पकड़े गए युवक तो काफी पढ़े लिखे और कम्प्यूटर के विशेषज्ञ पाये गए । आसान पैसा बनाने का एक और तरीका इन अच्छे युवकों ने निकाला है ( जो स्वयं पढ़ाई में बहुत होनहार है) ,यह लोग प्रतियोगी परीक्षाओं में दूसरे बच्चों के स्थान पर परीक्षा देते हैं , जिसके बदले इन्हे मोटी रकम मिल जाती है और पकड़े जाने पर जेल जाते हैं और अच्छा खासा अपना बना बनाया भविष्य बिगाड़ लेते हैं । इनके विषय में जानकार सहानुभूति भी होती है ।

बचपन से बच्चों के मन में यह तथ्य स्थापित किया जाना आवश्यक है कि बगैर कठोर श्रम किये कुछ भी पा लेना आसान नहीं होता । समाज में पनप रहे इस 'मैगी कल्चर' से निजात पाना बहुत आवश्यक है । 

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

" स्माइलीज़ और उनके एक्स रे........... "


'स्माइलीज़' आकृतियों का वह पिटारा है जिसमे मानव स्वभाव के सभी मनोदशाओं को मात्र एक छोटी सी आकृति से प्रदर्शित किये जाने के सभी प्रकार की आकृतियां उपलब्ध हैं । मित्रों और प्रेमी प्रेमिकाओं में पत्रों और लघु संवादों के आदान प्रदान में सदैव से मनुष्य के चेहरे को कार्टून बना कर उपहास / परिहास किया जाने का चलन रहा है ।

'फेसबुक' पर संवाद / टिप्पणी में अल्प शब्दों में अधिक से अधिक बातें कह देने के उद्देश्य से इसका प्रयोग अचानक बहुत बढ़ गया और भिन्न भिन्न प्रकार के मनोभावों को दर्शाने के लिए अनेक प्रकार के 'स्माइलीज़' का जन्म होता गया ।

आश्चर्य होता है कि सच में इतने मनोभाव होते भी हैं कि नहीं । फिर अपना 'मूड' जानकार उससे मिलती जुलती 'स्माइलीज़' लगाना भी कठिन लगता है । 'स्माइलीज़' से जिन मनोभावों का प्रदर्शन होता है ,वह सारे ऐसे भाव हैं कि जिन्हे दूसरों के चेहरे पर पढ़ना ज्यादा सरल होता है ।

कहीं चश्मा लगा कर , कहीं आँख दबाकर , कहीं जीभ निकाल कर ,कहीं डेविल ,कहीं एन्जिल , कहीं 'किस', कहीं दिल ,इतने सारे प्रेम चिन्ह बना लिए हैं कि उनका वर्णन करना मुश्किल है । चतुर लोग 'स्माइलीज़' का जवाब 'स्माइलीज़' से ही दे लेते हैं या फिर शायद उन्हें अपनी बात कहना नहीं आता ।

यहाँ तक तो सब ठीक है पर असली समस्या तब आती है जब किसी ने 'स्माइली' बनाने का प्रयत्न किया और 'स्माइली' नहीं बन पाई । ऐसे में 'स्माइली' के स्थान पर जो आड़ी, तिरछी, वक्रीय रेखाएं बन जाती हैं वह उस 'स्माइली' का 'एक्स रे' लगती हैं जिसमें उस 'स्माइली' के जिस्म की हड्डियां दिखाई पड़ने लग जाती हैं और जिस आशय से उसे बनाया जाता है उसकी पूर्ति फिर नहीं हो पाती । यह अपूर्ण / अधूरी 'स्माइलीज़' मक्के के उन दानो जैसी लगती हैं जो 'पोपकोर्न' खाते समय कभी कभी हाथ लग जाती हैं जिन्हे हम 'टुर्रा' कहते हैं ।

हंसी-मजाक के संवाद में तो इनका प्रयोग उचित है पर संजीदा बातों में इनके प्रयोग से बचना चाहिए । यह चिड़िया / तोता / मछली बच्चों के संवाद तक ही सीमित रहे तभी बेहतर है । 'फेसबुक' पर टिप्पणियों में इन्हे सजाने से खूबसूरती तो बढ़ती है पर 'अर्थ' अपना 'अर्थ' कहीं खो बैठते हैं ।


                                                                       ....... और मुझे 'स्माइली' बनाना नहीं आता  । 

('ब्लॉग पोस्ट' पर टिप्पणियोँ  में 'स्माइलीज़' बनाने पर 'स्माइली' तो बनती नहीं ,उसका 'अस्थि पंजर' सा बन जाता है । अब उस 'अस्थि पंजर' की शक्ल किसी परिचित 'स्माइली' से मिला कर सोचो तब समझ आता है 'टिप्पणीकार' कौन सा मनोभाव दर्शाना चाहता है । )

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

"चौदह नवम्बर ……… "



बच्चे सारे ,
सबसे न्यारे ,
लगते आँखों को प्यारे ,

हंस दें ये जब ,
खिल जाये फूल सब ,
सब फूलों से प्यारे बच्चे ,

बोली तोतली  ,
टूटी फूटी ,
पड़ जाए जो कानो में ,

नयन भरे बस हँस दे मन ,
हों जाएँ न्योछावर सब ,
अपने इन लालों पे ,

हो उम्र ,
बचपन की बड़ी ,
तभी जवानी भायेगी ,

क्लेश मिटेगा ,
दुनिया का ,
खुशहाली छा जाएगी ।

शनिवार, 9 नवंबर 2013

"ज़िन्दगी दो कश की………… "


कालेज पहुँचने के बाद जब इत्मीनान यह होना शुरू हुआ कि यहाँ की बात तो यहीं रह जाने वाली है और जो कुछ निजता मेरी है वह पूरी तरह से मेरी ही है । तब सबसे पहले तलब सिगरेट पीने की ही हुई थी । सिगरेट ने हमेशा से मेरी तरह ही सभी युवा होते बच्चों को लुभाया है । कुछ नया करने की चाहत में सबसे पहले हाथों में सिगरेट ही आती है । पहले एक संकोच सा होता है पर शुरू में इससे आत्मविश्वास बहुत बढ़ता हुआ सा 'लगता' है ।

सिगरेट की डिब्बी हाथ में लेकर उसके ऊपर की झिल्ली हटा कर डिब्बी का मुंह खोल जब दो बार ठक ठक करने पर एक सिगरेट उछल कर ऊपर आ जाती थी तब मजा ही कुछ और आता था । फिर सिगरेट को होंठों के बीच फंसा कर दुकान पर लटकती सुलगती सुतली से उसे सुलगाना और आँखे मीचते कुर्ते की जेब से अंदर ही अंदर टटोल कर दुकानदार को चिल्लर दे टहलते हुए हर सम्भव स्टाइल से सिगरेट पीने की कवायद करते हुए हॉस्टल तक पहुँच जाना आज भी साफ़ साफ़ याद है ।                                        

सिगरेट पीने का अंदाज़ ,जिसमें बस थोड़ा सा मुंह खोल कर धुँए का बादल सा बनाते हैं और जैसे ही वह बादलनुमा धुंआ बाहर जाने लगता है उसे हलके से पूरा का पूरा अंदर समेट लेते हैं, मुझे बहुत भाता था और इसे सीखने में मुझे लगभग एक माह और दस /बारह डिब्बियां लगीं होंगी।

अगला प्रयोग छल्लों का था । सिगरेट के धुएं से छल्ला बनाना भी बहुत संयम और धैर्य का काम था । 'करत करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान' को सही सिद्ध करते हुए हमने महारथ छल्ले बनाने में भी हासिल कर ही ली थी । हास्टल में कमरे के सामने रेलिंग पर बैठ कर अकेले जब सिगरेट सुलगती थी तब जलती सिगरेट निहारते खुद को दुनिया का सबसे बड़ा दार्शनिक समझते थे । घुप्प अँधेरे में कश खींचने पर जब सिगरेट का छोर आग से लाल हो चमक उठता था और 'चमक' आड़ी तिरछी गोल गोल घूमती हुई जैसे अपने अंदाज़ में मुस्कराते ,तेजी से होंठों की ओर बढ़ती थी तब खुद को उस क्षणिक मुस्कराहट के आगोश में लिपटा हुआ पा सुकून सा महसूस करते थे । (पर यह सिलसिला बस कालेज तक ही सीमित रहा ,क्योंकि दुनिया के बताये हुए 'सही' और 'गलत' के बीच द्वन्द करते अधिकतर हमने 'सही' का ही साथ रखा ) 

सुलगती सिगरेट और ज़िन्दगी का फलसफा एक सा है । नयापन होने पर दोनों अच्छी लगती हैं । दोनों ही समय के साथ सुलगती जाती हैं । साफ़ मालूम है कि ख़त्म दोनों होनी है फिर भी आखिरी कश तक उसे भीतर तक उतार लेने को जी करता है । 'चमक' जो दिखती है वह बस देखने में अच्छी होती है नहीं तो हवा मिलने पर 'भभक' दोनों ही जाती हैं ।

"ज़िन्दगी के कश तो तय होते हैं । इत्मीनान से कश का लुत्फ़ लिया जाय तो कश के बाद भी ज़िन्दगी का ज़िक्र होता रहता है ,नहीं तो कौन फ़िक्र करता है ज़िन्दगी के बाद । शायद यही फलसफा है 'दो कश की ज़िन्दगी' का "।